जब मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी ने पूछा कि क्या आप ने ख़िलाफ़त आंदोलन, जमियत-उल-उलेमा, मजलिस-ए-अहरार और मुस्लिम लीग जैसे अन्य दूसरे संगठनों से आवेदन पत्र लिया था? अगर हाँ तो वह आवेदन पत्र दिखलायें। उस सवाल पर नवाब साहब आंय-बांय करने लगे। फिर भी मौलाना के बहुत असरार पर नवाब साहब ने इन पसमांदा संगठनों (जमियत-उल-मोमिनीन और जमियत-उल-क़ुरैश) को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में शामिल करने या ना करने के फ़ैसले को एक सब-कमेटी गठित करके उस के हवाले कर दिया। इस कमेटी में सिर्फ़ अशराफ़ (3) को ही मेम्बर बनाया गया था। भैया जी (4) के बहुत असरार और मान-मनौव्वल के बाद भी नवाब साहब ने मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी को कमेटी का मेम्बर न बनाया।
Author: Faizi
बात आज़ादी से पहले की है, जब मुस्लिम कॉन्फ्रेंस द्वारा आयोजित (15-16 नवम्बर 1930 ई०) अधिवेशन में उस वक़्त के सभी छोटे-बड़े मुस्लिम संगठनों को आमंत्रित किया गया था। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और उस के अध्यक्ष बैरिस्टर नवाब मुहम्मद इस्माईल ख़ान का यह उद्देश्य था कि सारे मुस्लिम संगठनों को एक मंच पर लाया जाया। इस अवसर पर https://pasmandademocracy.com/biography/faizi/ मौलाना आसिम बिहारी को भी आमंत्रित किया गया था। मौलाना ने क़ौम (समाज) के इत्तेहाद (एकता) और इत्तेफ़ाक़ (एक राय होना/ मेल) पर एक बेहतरीन भाषण भी दिया।
लेकिन जब उन्होंने जमियत-उल-मोमिनीन (1) और जमियत-उल-क़ुरैश (1) जैसे पसमांदा (दलित' पिछड़े, और आदिवासी) संगठनों की भागीदारी की बात की और कहा कि आप इन दोनों संगठनों से जुड़े लोगो को भी बाज़ाब्ता (बॉय लॉज़) अपने संगठन में जगह दें जैसा कि आप ने ख़िलाफ़त आंदोलन (2), मुस्लिम लीग (2), मजलिस-ए-अहरार (2) और जमियत-उल-उलेमा (2) से जुड़े लोगों को दिया है। इस के जवाब में नवाब साहब ने कहा कि आप पहले इन संगठनों से आवेदन पत्र दिलवायें फिर उन पर विचार किया जायेगा।
जब मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी ने पूछा कि क्या आप ने ख़िलाफ़त आंदोलन, जमियत-उल-उलेमा, मजलिस-ए-अहरार और मुस्लिम लीग जैसे अन्य दूसरे संगठनों से आवेदन पत्र लिया था? अगर हाँ तो वह आवेदन पत्र दिखलायें। उस सवाल पर नवाब साहब आंय-बांय करने लगे। फिर भी मौलाना के बहुत असरार पर नवाब साहब ने इन पसमांदा संगठनों (जमियत-उल-मोमिनीन और जमियत-उल-क़ुरैश) को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में शामिल करने या ना करने के फ़ैसले को एक सब-कमेटी गठित करके उस के हवाले कर दिया। इस कमेटी में सिर्फ़ अशराफ़ (3) को ही मेम्बर बनाया गया था। भैया जी (4) के बहुत असरार और मान-मनौव्वल के बाद भी नवाब साहब ने मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी को कमेटी का मेम्बर न बनाया।
कमेटी ने इन संगठनों को शामिल करने के दावे को यह कह कर रद्द कर दिया कि, जमियत-उल-मोमिनीन और जमियत-उल-क़ुरैश जैसे रज़ीलों (नीच/म्लेच्छों) के संगठनों को शामिल करना किसी भी तरह से अशराफ़ के हक़ में न होगा। यह लोग तो हर मीटिंग और कॉन्फ्रेंस में बड़ी मुस्तैदी एवं पाबन्दी से शामिल होंगें और हमारे लोग कभी हाज़िर होंगें और कभी नहीं। यह लोग तो सत्तू बांध कर आ धमकेंगें और जब तक जलसा ख़त्म न होगा, डटे रहेंगे। जिस का नतीजा यह होगा कि यह लोग जो चाहेंगे कर लेंगें।
ख़ुदावन्द यह तेरे सादा दिल बन्दे किधर जायें!
कि दरवेशी भी अय्यारी है सुल्तानी भी अय्यारी।
शब्दावली:
(1) पसमांदा (पिछड़े, दलित, आदिवासी) संगठन
(2) विदेशी नस्ल/ अभिजात्य/ उच्च वर्ग के नेतृत्व वाले संगठन
(3) (शरीफ़/उच्च का बहुवचन)/ मुस्लिम अभिजात्य/विदेशी आक्रान्ता/ कुलीन वर्ग
(4) ख़ान बहादुर राशीदुद्दीन जमियत-उल-क़ुरैश के अध्यक्ष
लेखन: प्रोफेसर अहमद सज्जाद
प्रो० अहमद सज्जाद सेवानिवृत संकाय अध्यक्ष मानविकी प्रभाग, रांची विश्विद्यालय एवं मरकज़-ए-अदब-व-साइंस संस्था के प्रमुख कार्यकारी हैं। आप साहित्य, शिक्षा, यात्रा वृत्तांत, जीवनी, इस्लामी शिक्षा सहित देश विदेश की समस्याओं पर दर्जनों किताबें और आलेख लिख चुके हैं। प्रस्तुत आलेख उन की किताब, 'बन्दा-ए-मोमिन का हाथ' जो उर्दू में लिखी गयी है, से लिया गया है.
शोध, संकलन एवं अनुवाद डॉक्टर फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी
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