गालियाँ लगभग हर भाषा हर ज़ुबान में मौजूद है। तो क्या गालियाँ भाषा की सामाजिकता का अनिवार्य हिस्सा है? शायद हाँ! भाषा की सामाजिकता उसको बोलने वालों के बीच के अंतर्संबंधों को ज़ाहिर करती है और गालियों का जातिये एंव लैंगिक चरित्र की भी व्याख्या भी करती है। इसीलिए जब अनुराग कश्यप से पूछा गया कि आप की फिल्मों में गालियाँ बहुत होती हैं तो उन्होंने कहाँ कि
Author:Lenin Maududi
गालियाँ लगभग हर भाषा हर ज़ुबान में मौजूद है। तो क्या गालियाँ भाषा की सामाजिकता का अनिवार्य हिस्सा है? शायद हाँ! भाषा की सामाजिकता उसको बोलने वालों के बीच के अंतर्संबंधों को ज़ाहिर करती है और गालियों का जातिये एंव लैंगिक चरित्र की भी व्याख्या भी करती है। इसीलिए जब अनुराग कश्यप से पूछा गया कि आप की फिल्मों में गालियाँ बहुत होती हैं तो उन्होंने कहाँ कि ‘क्या आपको लगता है कि मैंने अपनी फिल्मों के लिए गालियों को ईजाद किया? क्या आप, हम या कोई भी आम इंसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में गुस्से में या प्यार से गालियों का उपयोग नहीं करता है? तमाम ऐसी गंदी गालियां हैं, जिन्हें हर इंसान अपने दोस्तों के साथ बातचीत के दौरान बोलता है। इसी वजह से हर फिल्म में गाली का इस्तेमाल होता आया है।’ अनुराग कश्यप का यह तर्क सही जान पड़ता है हालांकि यह भी सच है कि वह अपनी फिल्मों में गालियों का इस्तेमाल जनचेतना के लिए तो नहीं करते बल्कि इन्हें समाज के तबकों में बसी मानसिक कुंठा को सामाजिक सच की आड़ लेकर दर्शकों के सामने इस तरह परोसते हैं। इससे होता यह है कि दर्शक फिल्म में गालियों से भरी भाषा सुनते हैं तो शर्म महसूस नहीं करते बल्कि मज़ा लेते हैं। गालियों का इस्तेमाल करने वाले दर्शक, खासतौर पर मर्द, फिल्म में अपनी 'जुबां' को तस्दीक होता पाते हैं। बहरहाल... जब यही गालियाँ जातिय उत्पीड़न का ज़रिया बनती हैं तब मामला क्या होता है, जरा इसपर भी गौर करते हैं।
भारत के कुंठित ब्राह्मणवादी एंव सवर्णवादी समाज में जब कोई ‘साला चमार’, ‘साले जुलाहे’ बोलता है तब, दरअसल, वह जातियों के पदक्रम (Hierarchy) में छोटी जातियों की स्थिति कहाँ है ये बता रहा होता है। दरसल गालियाँ वर्चस्व कायम रखने का एक यंत्र है, ये एक प्रकार से सीमित हिंसा है जो उच्च जातियों को निम्न जातियों पर मर्दों को औरतों पर आधिपत्य जमाए रखने में मदद करती है। हजारों सालों से इन वर्गों को शिक्षा , सम्पत्ति, सत्ता, मानवीय गरिमा से वंचित रखना आसान काम नहीं था। अगर ये बहुत ज्यादा संवेदनशील होते तो इस अमानवीय स्थिति के खिलाफ रोज़ विद्रोह करते। इसलिए ये ज़रूरी था कि एक सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए छोटी जातियों और औरतों के अन्दर से उनकी संवेदना, उनकी गरिमा, उनके आत्मसम्मान को नष्ट किया जाए ताकि वे बगावत न कर सकें और मानसिक रूप से अपनी गुलामी को अपनी स्थिति को स्वीकार कर सकें। इसलिए बचपन से ही इनके अन्दर हीन भावना डाली जाए। इस हीन भावना को डालने का काम गालियाँ और कवातें के द्वारा किया जाता है।
ऐसा नहीं है कि इस्लाम जातिय उत्पीड़न से अछूता है जैसा कि पसमांदा बुद्धिजीवी खालिद अनीस अंसारी कहते हैं कि
‘मुस्लिम समाज में भी लगभग उस ही तरह का भेदभाव और असमानता मिलती है जैसी हिन्दू समाज में। यहां पर भी कुंजड़ा, धुनिया, कलाल, जोलहा, भटियारा आदि केवल जातियों के नाम नहीं बल्कि गालियां या अपमानसूचक शब्द भी बन गए हैं।कुछ इस तरह की कहावतें भी हैं-‘खेत खाये गदहा, मार खाए जोलहा’, ‘कोदो-महुआ अन्न नहीं, जोलहा-धुनिया जन नहीं’, ‘मारला बिना जोलहा बैरागी’। धुनिया को जहां ‘मियां धुनधुन’, तो डफाली को ‘मियां पोंपो’ कह कर मज़ाक उड़ाया जाता है। इस सब से थक कर कई जातियों ने अपना नया नाम रखा। जैसे- बुनकरों ने अंसारी, हज्जामों ने सलमानी, धुनियों ने मंसूरी, कसाइयों ने कुरैशी आदि, मगर इस के बाद भी उन्हें फब्तियों और उपहास से आज़ादी नहीं मिली।’
सामाजिक सुधारक माने जाने वाले सर सय्यद भी इस जातिय सर्वोच्चता की भावना से ग्रसित साबित होते हैं, अग्रेजों के प्रति अपनी जाति की वफादारी साबित करने के लिए वह १८५७ की क्रांति का कारण मुसलमानों की पसमांदा जातियों को ठहराते हैं। सर सय्यद लिखते हैं कि “जुलाहों का तार तो बिल्कुल टूट गया था, जो बदज़ात (बुरी जाति वाले) सब से ज़्यादा इस हंगामे में गर्मजोश (उत्साहित) थे।” यहाँ आप गौर करें सर सैयद अंसारी शब्द का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि जुलाहे शब्द का प्रयोग करते हैं।
(पेज न० 37, सर सैयद अहमद खान, असबाबे बगावतें हिन्द, प्रकाशक- मुस्तफा प्रेस, लाहौर)
गालियाँ हमारे पित्रसत्तामक समाज के चरित्र को भी दिखाती है। ये अस्वभाविक नहीं है कि जितनी भी गालियाँ बनी है उसमें अधिकांशत औरतों को ही ज़लील एवं अपमानित करती हैं। हमारे पुरुषवादी समाज ने औरतों के पुरे वजूद को ही भोग की वस्तु और गाली के रूप में स्थापित कर दिया है। औरतें जब आपस में लड़ाई करती हैं तो वे उन्हीं गालियों का प्रयोग करती हैं जो उनके अस्तित्व को अपमानित करती है। यहाँ ये समझना ज़रूरी है कि पित्रसत्ता स्त्री और पुरुष दोनों को प्रभावित करती है। ये औरतों को मजबूर करती है कि औरतें अपना वजूद मर्दों की नज़र से देखें। आमतौर पर कहा जाता है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। इस सन्दर्भ में ग़ौर करने लायक बात यह है कि कोई भी सीधी-सादी और कमज़ोर स्त्री दूसरी स्त्री पर अत्याचार नहीं करती। ऐसा करने वाली स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक विचारधारा से प्रभावित होती हैं, वे ख़ुद को श्रेष्ठ समझती हैं और दूसरी औरतों को नीचा दिखाने की कोशिश करती हैं इसीलिए वे भी उन्हीं उपकरणों का प्रयोग करती हैं जिसे पुरुष समाज प्रयोग करता है। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि क्या पुरुष जाति को अपमानित करने वाली गालियों का ईजाद नहीं किया जा सकता था स्त्रियों द्वारा? क्या स्त्रियों का दिमाग इस मामले में बंजर रहा है? क्या छिनाल, रंडी, कुलटा आदि का पुरुषीय संस्करण नहीं हो सकता था? जब आप इस बारे में सोचेंगे तो इसका जवाब “ना” में ही आएगा क्योंकि शोषक की संस्कृति ही समाज की संस्कृति बनती है। जैसा कि Steven Biko लिखते हैं
The most potent weapon of the oppressor is the mind of the oppressed (दमनकारी के हाथ उत्पीड़न का सबसे ताकतवर हथियार पीड़ित का दिमाग है)
शोषक की संस्कृति सबसे पहले शोषित लोगों के दिमाग पे हमला करती है। ये उनके के व्यक्तित्व को इस प्रकार ढालती है कि आप को पता ही नहीं चलता कि आप अपने शोषक के आदेश का ही पालन कर रहे हैं। औरतों के साथ विशेषत यही हुआ कि इन्होंने पुरुषों द्वारा अविष्कृत गालियों को ही अपना लिया और इन गालियों का प्रयोग करना इन्हें अपने सशक्तिकरण के रूप में नज़र आने लगा।
आज दो दोस्तों के बीच नज़दीकी सम्बन्ध दिखाने के लिए गालियों का प्रयोग होता है तो ये सवाल उठता है कि क्या कभी समाज से गालियाँ समाप्त हो जाएंगी? मेरे अनुसार नहीं... और ये तब तक समाप्त नहीं होगी जब तक पुरुष-ब्राह्मणवादी व्यवस्था में बदलाव नहीं आता। हो सकता है तब कुंठा निकालने के लिए कई शब्दों का प्रयोग किया जाए हो सकता है कि इन शब्दों को भी गाली ही कहा जाए।
यह लेख 16 January 2018 को https://hindi.roundtableindia.co.in
पर प्रकाशित हो चुका है।
Get the latest posts delivered right to your inbox.