मौलाना अशरफ़ अली थानवी का अशराफ़ चरित्र: पार्ट-2 जातिवाद

मौलना, शादी-विवाह के मामले में इस्लाम की अशराफ व्याख्या करते हुए जातीय बन्धन को इस्लाम बता रहे हैं,(इस्लाम की पसमांदा व्याख्या के अनुसार इस्लाम में शादी के लिए कोई जातीय बन्धन नही है) यहाँ यह बात भी स्पष्ट समझ में आती है कि अशराफ जातियों के ऊँच-नीच को मान्यता तो देते है लेकिन शादी विवाह को वर्जित नही माना है। वहीं पसमांदा जातियों में सीढीं-दार जातिवाद की मान्यता दिया है। स्पष्ट हो रहा है कि अशराफ जातियों के बीच शादी-विवाह से उनके बीच एकता बनी रहेगी लेकिन ठीक इसके विपरीत पसमांदा जातियों में बिखराव बना रहेगा।


26 April 202213 min read

Author: Faizi

[अशरफ अली थानवी का अशराफ चरित्र यहाँ अशराफ उलेमा के चरित्र के प्रतिनिधि के रूप में भी वर्णित किया गया है लगभग तमामतर अशराफ उलेमा चाहे वो किसी मसलक/फ़िर्के के संस्थापक या मानने वाले हों ऐसे ही चरित्र के वाहक हैं। यह लेख मौलाना अशरफ़ अली थानवी के सामाजिक-राजनैतिक-शैक्षिणिक-धार्मिक आदि विचारों का एक विस्तृत वर्णन है। जिसे तीन क़िस्तों में प्रकाशित किया जाएगा यह इस श्रृंखला का दूसरा लेख है। ]

शादी विवाह में जातीय बन्धन के पक्षधर

शादी विवाह में अशराफ़ जातियों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि हालांकि सैयदों का रुतबा बड़ा है लेकिन अगर शेख़ से शादी हो गयी तो यह न कह जाएगा कि अपने मेल में निकाह न हुआ बल्कि यह भी मेल ही है। आगे पसमांदा जातियों का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि जुलाहा, दर्ज़ियों के मेल और जोड़ के नहीं इसी तरह नाई, धोबी आदि भी दर्ज़ी के बराबर नहींं।(देखें: बहिशती ज़ेवर, निकाह का बयान)

मौलाना, शादी-विवाह के मामले में इस्लाम की अशराफ़ व्याख्या करते हुए जातीय बन्धन को इस्लाम बता रहे हैं, (इस्लाम की पसमांदा व्याख्या के अनुसार इस्लाम में शादी के लिए कोई जातीय बन्धन नहीं है) यहाँ यह बात भी स्पष्ट समझ में आती है कि वह अशराफ़ जातियों के ऊँच-नीच को मान्यता तो देते हैं लेकिन शादी-विवाह को वर्जित नहीं माना है। वहीं पसमांदा जातियों में सीढ़ी-दर-सीढ़ी जातिवाद को मान्यता दी है। स्पष्ट हो रहा है कि अशराफ जातियों के बीच शादी-विवाह से उन के बीच एकता बनी रहेगी लेकिन ठीक इसके विपरीत पसमांदा जातियों में बिखराव बना रहेगा।

[अधिक जानकारी के लिए यह लेख पढ़ें https://pasmandademocracy.com/caste-religion कुफ़ू मान्यता और सत्यता]

स्वयं की जाति पर विरोधाभास सैयद

फ़रमाया कि हिन्दुस्तान में अक्सर दो संज्ञा को जोड़ कर नाम रख देते हैं और अर्थ का कुछ ध्यान नहीं देते। इस तरह मेरा नाम अशरफ़ अली का कुछ मतलब नहीं निकलता। मैंने सोचा तो पता चला कि यह अशरफ़ इब्न-ए-अली है क्योंकि मेरी मां अल्वी (अली र०अ० की वंशज) थीं।

(मलफ़ूज़ात, भाग-26,पेज 310)

काबुली पठान

एक शख्स ने हज़रत (थानवी) से कहा कि मैं आप को देख कर काबुली समझता था, इस पर कहा कि जो काबुली मेरे पास आते हैं वह अक्सर मुझ को काबुली समझते हैं। बात यह है कि काबुल के बादशाह फ़र्रुख़ शाह यहाँ (भारत) आये थे और उन के साथ के लोग यहाँ रह गए थे, हम उन की नस्ल (वंश) में हैं।

(मलफ़ूज़ात भाग- 19, पेज 199-200)

एक जगह और लिखते हैं...

फ़रमाया कि एक ख़त आया था और पते पर लिखा था अशरफ़ अली ख़ान। कुछ ख़तों पर मेरे नाम के साथ 'ख़ान' लिखा हुआ आता है और वाक़ई स्वभाव भी मेरा पठानों ही का सा है। एक मौलवी साहब ने कहा कि मिज़ाज (स्वभाव) तो पठानों जैसा नहीं, हाँ हिम्मत पठानों जैसी है। (थानवी ने) फ़रमाया हिम्मत ही सही और हिम्मत स्वभाव के मातहत होती है तब भी स्वभाव पठानों जैसा रहा। फ़रमाया ऐसे स्वभाव की वजह यह मालूम होती है कि मजज़ूब (सूफ़ी) साहब की दुआ (आशीर्वाद) से पैदा हुआ हूँ। उन्हीं की रूहानी तवज्जह (आध्यात्मिक ध्यान) से वही रंग मेरे मिजाज़ (स्वभाव) का हो गया। (मलफूज़ 376, मलफूज़ात भाग-1, पेज 283)

फ़ारूक़ी शेख़ 

पिता की ओर से इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा उमर फ़ारूक़ (र०अ०) के वंश से सम्बंधित हैं

(पेज 34, अशरफ-उस सवानेह पेज 330, तज़किरह-ए-मशाएख़-ए-देवबंद)एक जगह और फ़रमाते है कि…

मुझ को कुछ बातों से अपने फ़ारुक़ीयत (फ़ारूक़ी शेख़ जाति) पर कुछ सन्देह हो गया। मैं ने एक ख़्वाब देखा कि एक आदमी मेरे पास दौड़ा हुआ आया और मुझ से पूछा कि तुम फ़ारूक़ी हो? मैंने कहा कि बुज़ुर्गों से तो यही सुना है। उस ने कहा मैं हज़रत उमर फ़ारूक़ (र०अ०) से पूछ कर आता हूँ। मैं उस वक़्त डरा कि देखिए क्या आकर कह दे। वह दौड़ा हुआ गया और दौड़ा हुआ आया और कहा मैंने पूछा था, यह फरमाया (उमर फारूक ने) कि हाँ हमारी औलाद में हैं, इससे वह सन्देह भी दूर हो गया। एक बार हज़रत हाजी साहब (इम्दादुल्लाह मुहाजिर मक्की) के एक मुरीद ने हज़रत उमर फारूक(र०) को एक बार ख्वाब में देखा, फरमाया (उमर फारूक ने) कि हाजी साहब हमारी औलाद में से हैं हमारा सलाम कहना और हमारी तरफ से उनके सर पर हाथ फेर देना। मुरीद ने हज़रत (इम्दादुल्लाह मुहाजिर मक्की) से यह ख्वाब बयान किया, आप ने फौरन सर से टोपी उतार कर फरमाया लो सर पर हाथ रख दो, मुरीद झिझका कि मेरा हाथ इस काबिल कहाँ, आप ने फरमाया कि मियाँ यह तुम्हारा हाथ थोड़े ही है, यह तो हज़रत उमर फारूक (र०) का हाथ है तब मुरीद ने सर पर हाथ रखा।

https://en.wikipedia.org/wiki/Habib_al-Rahman_al-%27Azmi

मौलना हबीबुर्रहमान आज़मी साहब ने अपनी किताब अन्साब व किफा'अत की शरई हैसियत में साबित किया है कि भारत मे जितने भी फ़ारूक़ी है उनका सिलसिला-ए-नसब (वंश-वृक्ष) उमर फारूक (र०) से नही मिलता मतलब सब के सब फर्जी फ़ारूक़ी (शेख) हैं।

अपने सपने वाली बात की सत्यता साबित करने के लिए एक अन्य अशराफ सूफी के सपने की चर्चा इसलिए किया कि ताकि लोगो को लगे कि अशराफ उलेमा/सूफी और उनके शिष्य इस तरह के सपने देखते रहतें हैं, मौलाना का सपना कोई ऐसे ही नही है। कुल मिला कर अपने जाति के बारे में भ्रम की स्तिथि पैदा किया एक बात यह भी गौर तलब है कि सिर्फ अशराफ जातियों से खुद को जोड़ा किसी पसमांदा जाति के लिए कोई ख्वाब आदि नही देख पाए। मालूम होता है कि पूरे अशराफ वर्ग में सर्व-स्वीकार्यता वांछित था।

क़ुरैश की खिलाफत

खिलाफत क़ुरैश के लिए है, गैर-क़ुरैश बादशाह को सुल्तान कहा जायेगा लेकिन ईताअत (आज्ञा-पालन) इसकी भी वाजिब (आवश्यक) है।

कुछ लोगो ने जो यह कहा है कि गैर-कुरैशी भी खलीफा हो सकता है तो यह नस (क़ुरआन/ हदीस) के विरुद्ध है। इसलिए जब हज़रात अन्सार (ओवैस और खजरज जनजाति के लोग जिन्हें इस्लाम प्रेम के कारण मुहम्मद स० ने अन्सार{मददगार} नाम दिया था) पर यह नस पेश की गयी तो उन्होंने भी इसको मान लिया। इसलिए इस पर सहाबा (मुहम्मद स० के साथियों) का इज़्मा (एक राय होना) हो गया। इसलिए जिन लोगो के कब्जे में सल्तनतें हैं वह अगर क़ुरैश(सैयद, शेख) को जब कि उसमें अहलियत(पात्रता/अर्हता) हो खलीफा न बनाये तो मुजरिम होगा।

(पेज 52, मलफूज़ात भाग-26)

डिटेल के लिए देखे इस्लामी समता: सच के आईने में

[अधिक जानकारी के लिए यह लेख पढ़ें :https://pasmandademocracy.com/caste-religion/momin/खिलाफत पर क़ुरैश के विशेषाधिकार की सत्यता ]

क़ुरैश के आगे होने की दलील

फरमाया कि इस वक़्त तक अक्सर उमूर-ए-दीन (धार्मिक मामलों) में ज़्यादातर नफा औलादे क़ुरैश (शेख, सैयद) ही से हुआ है चुनांचे सिद्दीकी,फ़ारूक़ी,उस्मानी, अल्वी यह सब क़ुरैश ही हैं और उनसे दीन (धर्म) को बहुत नफा पहुँचा है जिस से राज़-ए-तक़द्दुम क़ुरैश (क़ुरैश लोगो के आगे रहने का राज़) मुन्कशिफ(खुलता) होता है।

(पेज 42,मकालाते हिकमत भाग-2,मलफूज़ात भाग-13)

जबकि सच्चाई यह है कि इस्लामी फ़िक़्ह समेत सभी धर्मिक मामलों में नॉन-कुरैश लोगो का योगदान न सिर्फ ज़्यादा है बल्कि अतुलनीय रहा है वहीं क़ुरैश लोगो का इतिहास सत्ता प्राप्ति के लिये रक्तरंजित रहा है। खिलाफत प्राप्त करने के लिए गैर-इस्लामी ज़ुल्म ज़्यादतियों(आग में जला देना, क़ब्र से निकाल कर फाँसी देना आदि) से क़ुरैश का इतिहास भरा पड़ा है। (देखें महमूद अहमद अब्बासी लिखित तहक़ीक़ सैयद व सादात एवं शाह मोइनुद्दीन अहमद नदवी लिखित तारीखे इस्लाम)

मौलना थानवी ने यहाँ भी झूठ बांधते हुए जाति विशेष (नस्ल परस्ती) की बड़प्पन का राग अलापा है।

राज़ी ग़ज़ाली  क्यों नही पैदा हो रहें हैं

इस सवाल के जवाब में कहते हैं..

एक साहब मुझसे कहने लगे कि ना मालूम आजकल ग़ज़ाली और राज़ी जैसे क्यों नहीं पैदा होते, मैंने कहा, कहाँ से पैदा हों, दनी-उत-तबअ (नीच स्वभाव वाले) और कम-हौसला लोग तो इल्म-दीन (इस्लाम का ज्ञान) पढ़ने लगे और जो लोग खानदानी बुलन्द-हौसला आली-दिमाग़ थे उन्होंने इल्म-दीन पढ़ना छोड़ दिया, चुनाव का अधिकार हमको दो, चुनाव हमसे करवाओ फिर देखो हम ग़ज़ाली और राज़ी पैदा कर के दिखा दें (पेज 372, मलफूज़ 509, मलफूज़ात भाग-1)

*प्रसिद्ध इस्लामी विद्धवान

इसी सवाल के जवाब में एक जगह यह कहते हैं…

अब बेचारे गुरबा (गरीब लोग) जुलाहे, धुनिये पढ़ते हैं उनकी जैसी समझ होती है वैसे ही निकलते हैं और यह हो नहीं सकता कि गरीब-गुरबा के बच्चों को ना पढ़ाया जाए क्योंकि उमरा{अम्र(हुक्म) देने वाला, हाकिम,शासक वर्ग, धनी लोग} ने खुद छोड़ा और इनसे हम छुड़ा दे तो फिर इल्मे दीन किस को पढ़ाएं?(पेज 23, अम्साले इबरत)

एक जगह उलेमा के कम हिम्मती होने का कारण बताते हुए कहते हैं कि यह सब कुछ खराबी ना-अहलो (अयोग्य) के इल्म (ज्ञान) पढ़ लेने के कारण हो रहा है, उनमें अक्सर लालची हैं और इसकी वजह यह भी है कि उमरा ने अपने बच्चों को इल्में-दीन पढ़ाना छोड़ दिया गुरबा (गरीब लोग) इल्मे-दीन पढ़ते हैं तो वो कहाँ से बुलन्द हौसला लाएं, सो यह इंतिखाब (चुनने) की गलती है।

(पेज 80-81, मलफूज़ात भाग-2)

मौलना के उपर्युक्त विचार से साफ पता चलता है कि पसमांदा लोग बड़े ज्ञानी नही बन सकते दूसरी पसमांदा को बहुत मज़बूरी में ज्ञान देने पड़ रहा है।

सयादात इस्तलाहिया का शर्फ़ बनि फातिमा को है (परिभाषित रूप से सैयद होने का गर्व फातिमा के सन्तान को है)

एक सिलसिले में कहते हैं कि कुछ अल्वी (अली की संतान) जो कि बनि फ़ातिमा नही हैं (अर्थात फ़ातिमा के पेट से नही जन्मे है) वो भी अपने को सैयद लिखते हैं यह जाएज़ (सही) नही क्योंकि परिभाषित रूप से सैयद होने का गर्व तो सिर्फ हुज़ूर सरवरे आलम (मुहम्मद स०) की औलाद को हासिल है जो हज़रत फ़ातिमा (र०) के वास्ते से ही उनको पहुँचा है। हज़रत अली (र०) की जो औलाद दूसरे बतनो (दूसरी पत्नियों) से हैं वो सब शेखों में गिने जायेंगें जैसे हज़रात खुल्फ़ा राशेदीन (इस्लाम के पहले चार खलीफा) की औलाद शेख कहलाती है।

(पेज 164-165, मलफूज़ात भाग-10)

[अधिक जानकारी के लिए यह लेख पढ़ें :https://pasmandademocracy.com/pasmanda/momin]

सैयद व आले रसूल शब्द – सत्यता व मिथक

नसब का फायदा

सुरः तूर आयत 21 का आधा हिस्सा(और जिन लोगों ने ईमान क़ुबूल किया और उनकी औलाद ने भी ईमान में उनका साथ दिया तो हम उनकी औलाद को भी उनके साथ शामिल कर देंगे) लिखने के बाद लिखते हैं, लोहूक के माने यह है कि वह और उनकी औलाद दोनों जन्नत के एक ही दर्जे में हैं और औलाद के अमल (कर्म) की कमी पूरी कर दी जाएगी, यह लाभ है नसब (वंश) का, लेकिन यह फायदा किसी मख़सूस (विशेष) नसब से सम्बन्धित नही है बल्कि सभी स्वीकार्य नसबो (वंशों, जातियों) के साथ मान्य है, यहाँ तक कि अगर कोई दनी-उन्नसब(नीच वंश का) हो और अल्लाह के समीप बुज़ुर्ग(धर्मपरायण व्यक्ति) हो मसलन कोई जुलाहा तो वह भी अपनी औलाद के काम आएगा। (पेज 44, मकालाते हिकमत भाग-2 मलफूज़ात भाग-13)

मौलाना ने यहाँ शब्द लहक़- लोहुक का अर्थ दर्जा/स्तर से लिया है जबकि उसका अर्थ  मिलना या शामिल करना होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि क़ुरआन के इस पँक्ति का अशराफ व्याख्या कर मौलाना जातिवाद को इस्लामी रंग देने की कोशिश कर रहें हैं यहाँ साफ तौर पर जुलाहा जाति को नीच भी कह रहे हैं और उसे जातिवाद का फायदा भी बता रहें हैं ताकि वह जातिवाद में फील गुड महसूस करे यहाँ मसलन जुलाहा (उदाहरण स्वरूप जुलाहा) से पूरे पसमांदा को व्यक्त किया जा रहा है। मेरी समझ से क़ुरआन ने यहाँ सिर्फ बाप-बेटे की बात किया जिसको मौलाना पूरे वंश या जाति से जोड़ कर भ्रमित करने की कोशिश कर रहें हैं।

शराफत ए नसब (उच्च वंश) के असरात प्रभाव) पर एक अंग्रेज का ताईदी हिकायत

(समर्थन वाली कहानी)

कहते हैं कि हमारे एक भाई निकाह के मामले में शराफत-ए-नसब (उच्च जाति) के कायल न थे (शादी विवाह में ऊँच-नीच को नही मानते थे), कहते थे कि ये क्या बेकार की बात है, खाने-पीने को होना चाहिए और शिक्षा होनी चाहिए बाकी और किसी चीज़ की ज़रूरत नही। एक बार एक अंग्रेज अधिकारी के यहाँ पहुँचते है तो देखा कि उसने मेज़ पर एक कागज फैला रखा है और कुछ निशान बना रहा है। उन्होंने पूछा कि यह क्या है? उसने कहा कि मुझे अपनी कुतिया से नसल लेने के लिए एक नजीब (उच्च जाति) कुत्ते की ज़रूरत है। पहाड़ पर मेरे एक दोस्त हैं और उन्होंने एक कुत्ते का नसब नामा (वंश वृक्ष) भेजा है उसे देख रहा हूँ कि यह शरीफुन-नसब (उच्च वंशीय/ उच्च जाति का) भी है या नही। उनको हैरत हुई और पूछा कि क्या इसकी भी कोई असल है (इसमें भी कुछ सच्चाई है?) वह सीधा होकर बैठ गया और एक भाषण दिया जिसमें उच्च जाति के होने के लाभ बताते हुए कहा कि इसकी बड़ी जरूरत है, फिर वो साहब इस भाषण से मान गए, मैंने कहा कि मुसलमान के कहने से नही माना एक अंग्रेज के कहने से मान गए। (पेज 213, मलफूज़ात भाग-11)

सारे नबियों (ईशदूतों) को आली खानदान (उच्च परिवार) में पैदा फरमाया

कहतें हैं कि जिनसे ईश्वर आम धार्मिक सेवाएं लेना चाहता है उनको आली खानदान(उच्च परिवार) में पैदा फरमाता है ताकि उनका अनुयायी बनने में उमरा (अमीर का बहुबचन, अमीर=आदेश देने वाला/शासक) और शोरफा (अशराफ) को भी किसी प्रकार का आर (लज्जा) न आवे। इसी मसलेहत (पॉलिसी) से अंबिया हमेशा आली खानदान में पैदा हुए, ऐसे लोगो से आम नफा बहुत होता है।

(पेज 31, मलफूज़ात भाग-16)

यह बात पूरी तरह से भ्रमित करने वाला है बहुत से नबी सामाजिक ऐतेबार से बहुत छोटी जाति/नसल/क़ाबिल/खानदान में पैदा हुए हैं और समाज के उच्च वर्ग को बहुत प्रभावित भी किया है। स्वयं मुहम्मद(स०) सामाजिक दृष्टि से एक ऐसे समाज मे पैदा हुए थे जिनके पिछड़ेपन का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समाज पर कोई राजा शासन भी नही करना चाहता था।

खानदानी शराफ़त

शराफत ख़ानदानी (पारिवारिक बड़प्पन) की चर्चा हुई तो कहा कि मैं अक्सर दिल को टटोलता हूँ, जितना मुझे छोटे लोगो से डर लगता उतना बड़े लोगो से नही लगता वजह यह है कि ख़ानदानी आदमी से ज़ुल्म का खौफ़ नही लगता और कम दर्जा (स्तर) के आदमी से हर बात में डर रहता है कहीं ज़ुल्म ना करें। (पेज 53, मलफूज़ात भाग-20)

यहाँ मौलाना साफ तौर पर अशराफ लोगो (बड़े लोग,ख़ानदानी लोग जिनका वंशवृक्ष स्प्ष्ट रूप से लिखित होता है और किसी न किसी क़ुरैश {सैयद, शेख}घराने से मिलता है) को क्लीन चिट देने की कोशिश किया है और छोटे लोग (पसमांदा) को खुलेआम ज़ुल्म (अत्याचार) करने वाला बताया है। उनकी यह बात सच्चाई से कोसों दूर झूठ गढ़ने वाला प्रतीत होता है।

पूरी मलफूज़ात में पसमांदा जातियों को तुम-ताम से सम्बोधित किया है वहीं अशराफ को जी जनाब से।

अशरफ अली थानवी का अशराफ चरित्र यहाँ अशराफ उलेमा के चरित्र के प्रतिनिधि के रूप में भी वर्णित किया गया है लगभग तमामतर अशराफ उलेमा चाहे वो किसी मसलक/फ़िर्के के संस्थापक या मानने वाले हों ऐसे ही चरित्र के वाहक हैं। एक अजीब बात है कि ऐसे अशराफ चरित्र वाले थानवी को अशराफ ने भारत मे हीरो बनाकर रखा है लेकिन भारतीय जनमानस को तनिक भी आपत्ति नही है।

सन्दर्भ

मलफूज़ात हकीमूल उम्मत, जमा करदा, मुफ़्ती मोहम्मद हसन अमृतसरी, इदारा तालिफ़ाते अशरफिया चौक फव्वारा, सलामत प्रेस मुल्तान,पाकिस्तान।

ईमेल:taleefat@mul.wol.net.pk, फ़ोन न० 540513-519240

मौलाना अशरफ अली थानवी और तहरीके आज़ादी, प्रो०अहमद सईद, मजलिसे सियान्तुल मुस्लिमीन लाहौर,नफीस प्रिंटिंग प्रेस लाहौर,1984अशरफ-उस-सवानेह जिल्द-1 और 2, मुरत्तब ख्वाजा अजीजुल हसन एवं मौलना अब्दुल हक़, इदारा तालिफ़ाते अशरफिया चौक फव्वारा, सलामत प्रेस मुल्तान,पाकिस्तान।तज़किराह मशाएखे देवबंद, मौलाना मुफ़्ती अजीजुर्रहमान, मदनी दारुत तालीफ़ बिजनौर, मदीना प्रेस बिजनौर, 1967इस्लामी शादी, हकीमुल-उम्मत अशरफ अली थानवी,(मुरत्तब मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद ज़ैद मज़ाहीरी नदवी),फरीद बुक डिपो 422 मटिया महल उर्दू मार्किट जामा मस्जिद देहली- 110006)अम्साले इबरत, मुरत्तब मौलाना हकीम मुहम्मद मुस्तुफा बिजनौरी (खलीफा, हकीमुल उम्मत हज़रत थानवी), सूफी मुहम्मद इक़बाल कुरैशी (खलीफा,मौलना मुफ़्ती मुहम्मद शफी), इदारा तालिफ़ाते अशरफिया चौक फव्वारा, सलामत प्रेस मुल्तान,पाकिस्तान।Ashraf ‘Ali Thanawi Islam in Modern South Asia, Muhammad Qasim Zaman, Oneworld Publications,185 Banbury Road Oxford,2007.


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