अगर आंकड़ों की बात करें तो लगभग 63 लाख बुनकर परिवार भारत में हैं अर्थात करीब 2 करोड़ लोगों को इससे रोज़गार मिलता है तो सरकार की नीतियों में इसकी प्राथमिकता होनी चाहिए जो कि नही है. अधिकतर बुनकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अति पिछड़े वर्ग एवं पसमांदा समुदाय के हैं. इसलिए सामाजिक न्याय के सिद्धांत के तहत भी इनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए थी लेकिन वास्तविकता ये है की सरकारी नीतियों का लाभ इन तक कभी पहुंचा ही नहीं.
Author: Lenin Maududi
मियां-बीवी, औसतन 3 बच्चे, दो कमरे का घर. उसमे से एक कमरे में पॉवर लूम लगा हुआ रहता है. जो तब तक चलता है जब तक लाइट रहती है. इस पॉवर लूम को घर के सभी सदस्य मिल के चलाते हैं. उत्तर प्रदेश में लाइट का हाल आप को पता ही है पूरे दिन में मुश्किल से 12-14 घंटे रहती है, तो उस हिसाब से 24 घंटे में 2-3 साड़ी मुश्किल से बन पाती है. एक साड़ी पर औसत 80 रुपये मिलते हैं अर्थात 80×3×30= 7200 रूपये मासिक की कमाई हो पाती है. इतनी ही कमाई में घर परिवार चलाना है, बच्चों को पढ़ाना है और स्वास्थ्य संबंधी खर्च भी करना है. ये हाल है दूसरों का तन ढंकने के लिए कपड़ा बुनने वाले बुनकर का जो खुद नंगे बदन काम करते हुए दो जून की रोटी को तरस रहे हैं. गंदगी और बीमारियों के साथ तालेमल बिठाते हुए काम कर रहे इन लोगों ने शायद यह मान लिया है कि उनके हिस्से में इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं. ना तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है और ना ही लोककल्याणकारी राज्य की सुविधाएँ. हर रोज़ रोज़ी-रोटी में हाडतोड़ मेहनत करने में ये सोच ही कहाँ पनपती है की बच्चा स्कूल जाए. अगर स्कूल भेजें भी तो बस वही तक जहाँ तक सरकारी स्कूल है. बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सब मिलकर काम करते हैं तो मुश्किल से गुज़र हो पाता है. घर में किसी के बीमार होने या बेटी की शादी आदि कुछ भी बड़ी समस्या आई कि नही इनकी सारी बचत एक झटके में हवा हो जाती है और फिर वह उसी दरिद्रता में चले जाते हैं जहाँ से बड़ी मुश्किल से निकले होते हैं. पिछले लगातार कुछ सालों से साड़ी उद्योग में मंदा छाया हुआ है जो धीरे-धीरे और बड़ रहा है. साड़ी उद्योग के जानकार और मऊ कुटीर उद्योग के जनरल सेकेटरी जमाल अर्पण अंसारी साहब बताते हैं की अगर कपडे पे GST लगी तो साड़ी और भी महंगी हो जाएगी. जो उद्योग पहले से ही मंदी का शिकार हो GST उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ने का काम करेगी. मऊ, मुबारकपुर, बनारस जैसी असंगठित क्षेत्र की साड़िया, संगठित क्षेत्र की साड़ियों से महंगी हो जाएंगी. इसका परिणाम ये होगा की मऊ-मुबारकपुर जैसी जगह के साड़ी के दलालों को अपने कामगारों की संख्या कम करनी पड़ेगी. जमाल अर्पण के अनुसार लगभग 45% से 50% शहर के पॉवर लूम बंद हो जाएगे. इससे कितनी बड़ी संख्या में बेरोज़गारी पैदा होगी उसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है. इससे न सिर्फ कपड़ा उद्योग से जुड़े व्यापारी प्रभावित होंगे बल्कि मऊ-बनारस-मुबारकपुर जैसे शहरो के और दुसरे उद्योग भी प्रभावित होंगे क्योंकि उनके ग्राहक यही बुनकर होते हैं
अगर आंकड़ों की बात करें तो लगभग 63 लाख बुनकर परिवार भारत में हैं अर्थात करीब 2 करोड़ लोगों को इससे रोज़गार मिलता है तो सरकार की नीतियों में इसकी प्राथमिकता होनी चाहिए जो कि नही है. अधिकतर बुनकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अति पिछड़े वर्ग एवं पसमांदा समुदाय के हैं. इसलिए सामाजिक न्याय के सिद्धांत के तहत भी इनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए थी लेकिन वास्तविकता ये है की सरकारी नीतियों का लाभ इन तक कभी पहुंचा ही नहीं. वर्तमान में अधिकांश बुनकर पावरलूम चला कर कपड़ा तैयार करते हैं. पॉवर लूम भी हथकरघा ही है जो विधुत से चलता है. पॉवर लूम की समस्याएं भी हथकरघा बुनकरों से कम नहीं हैं. बावजूद इसके विधुत करघा चलने वाले बुनकरों को बुनकर क्रेडिट कार्ड नहीं मिलता. आप को एक उदाहरण से समझाता हूँ. आज से 25-26 साल पहले मेरे अब्बू की मदरसे में नौकरी लगी उस वक़्त उनका वेतन 5-6 हज़ार के करीब था और मेरे मोहल्ले के चाचा अपने दो पॉवर लूम से भी तक़रीबन इतना ही कमा लेते थे. आज मेरे अब्बू का वेतन 50 हज़ार से ज्यादा है और मेरे मोहल्ले के चाचा उसी दो लूम से 15 हज़ार भी बड़ी मुश्किल से कमा पाते हैं. क्या अब आप समझ पा रहे हैं कि ये विकास का चक्र कैसे घूमा है ? इन विकास के दावों से किसका साथ हुआ और किसका विकास हुआ है?
साड़ी उद्योग में लगातार मंदी के कारण मऊ-मुबारकपुर, बनारस आदि जगह के लड़के सऊदी अरब देश जाने पर मजबूर हैं. ज्यादातर ये लड़के अकुशल कारीगर के रूप में जाते हैं. इनको खुद भी नही पता होता कि इनको कौन सा काम करने को मिलेगा? कभी ये पत्थर तोड़ते हैं तो कभी बकरियां चराते हैं और बहुत खुशकिस्मत रहे तो किसी कंपनी में लेबर का काम करते हैं. अरब देशों में भी इनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं रहती. न ही ये इन बिरादराने इस्लामी देशों की नागरिकता ले सकते हैं और न यहाँ की लड़कियों से शादी कर सकते हैं. इनके पास यूरोप और अमेरिका के देशों में काम करने वाले कारीगरों की तरह अधिकार नही होता. उन्हें बहुत कम पैसे में बंधुआ मज़दूरों की तरह काम करना पड़ता है. शेख इनका पासपोर्ट अपने पास रख लेता है ताकि ये कहीं भागे न, पर भागे भी तो कहाँ भागे जो 1 से 2 लाख का कर्जा ले के तो ये इन देशो में काम करने जाते हैं. न चाहते हुए भी कर्ज़ चुकाने के लिए ये कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. पर जो बेरोज़गार लड़के अरब देशों में नही जा पाते अब वो धीरे धीरे अब छोटे-मोटे अपराधों में लिप्त होते दिख रहें हैं. इन इलाकों में अपराधीकरण की प्रवित्ति दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. अपने शहर मऊ की बात करूँ तो यहाँ एक और चीज़ देखने को मिल रही है. अब स्तिथि यहाँ तक आ गयी है कि पसमांदा बुनकर के कुछ परिवार सेक्स वर्कर का भी काम करने लगे हैं यद्यपि इनकी संख्या बहुत कम है. अगर GST का वैसा ही दुषपरिणाम हुआ जैसा बताया जा रहा है तो ये स्थिति और कितनी दर्दनाक और भयावह हो जाएगी इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल न होगा.पर सवाल ये है कि पसमांदा मुसलमानों की ये हालत क्या हमारी मुस्लिम राजनीति का हिस्सा है? ये समस्याएं कभी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा क्यों नहीं बन पाती हैं? क्यों नहीं कोई राजनीतिक दल इनके पक्ष में खड़ा दिखाई पड़ता है? मै मानता हूँ की साम्प्रदायिकता एक बहुत बड़ा मुद्दा है पर बेरोज़गारी भी उतना ही बड़ा मुद्दा है. अगर साम्प्रदायिकता की लड़ाई बेरोज़गारी की लड़ाई के साथ नही लड़ी जा रही तो हमें उन सेक्युलर योद्धाओं की जाति देखने की ज़रूरत है. अब अपने सवाल को बदलिए और पूछिये क्या इन सेक्युलर योद्धाओं, मुस्लिम नेताओं की जाति के लिए ये साड़ी/कपड़ा उद्योग मुद्दा है? क्या इनकी जाति इससे प्रभावित होती है? अब आप को जवाब मिल जाएगा.
यह लेख 04 अगस्त 2017 को https://hindi.roundtableindia.co.in पर प्रकाशित हो चुका है
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