कुछ लोग बड़े दावे से कहते है कि भारतीय मुसलमानों में व्याप्त ज़ात-पात/ ऊँच-नीच की बीमारी दूसरे शब्दों में किसी को हसब-नसब (वंश) की बिनाह पर आला (श्रेष्ठ), अदना (नीच/छोटा) समझने की विचारधारा की वजह भारतीय समाज की परम्पराएं है जो तथाकथित हिन्दू धर्म में मौजूद थी इस दावे के करने वालो का कहना है कि लोग मज़हबे-इस्लाम में दाखिल तो हुए मगर अपनी परम्पराओं (वर्ण व्यवस्था/जन्म आधारित ऊँच-नीच/ छूआ-छूत) के साथ दाखिल हुए जिससे ये बुराई मुसलमानों में आ गई. हालाँकि ये पूरी तरह सच नही है. दरअसल ये सिक्के का एक पहलू है जिसे प्रस्तुत कर के पूरी हकीकत को बड़ी चालाकी से आँखों से ओझल कर दिया गया है.
Author: Momin
‘वह झूठ नंगी सड़क पर उठाते फिरता है मैं अपने सच को छिपाऊँ ये बेबसी मेरी’
कुछ लोग बड़े दावे से कहते है कि भारतीय मुसलमानों में व्याप्त ज़ात-पात/ ऊँच-नीच की बीमारी दूसरे शब्दों में किसी को हसब-नसब (वंश) की बिनाह पर आला (श्रेष्ठ)अदना (नीच/छोटा) समझने की विचारधारा की वजह भारतीय समाज की परम्पराएं है जो तथाकथित हिन्दू धर्म में मौजूद थी इस दावे के करने वालो का कहना है कि लोग मज़हबे-इस्लाम में दाखिल तो हुए मगर अपनी परम्पराओं (वर्ण व्यवस्था/जन्म आधारित ऊँच-नीच/ छूआ-छूत) के साथ दाखिल हुए जिससे ये बुराई मुसलमानों में आ गई. हालाँकि ये पूरी तरह सच नही है. दरअसल ये सिक्के का एक पहलू है जिसे प्रस्तुत कर के पूरी हकीकत को बड़ी चालाकी से आँखों से ओझल कर दिया गया है. अर्थात ये आधा अधूरा तथ्य है और ये अकाट्य सत्य है कि आधा अधूरा सच झूठ से भी ज़्यादा खतरनाक होता है. आधे अधूरे सच का नुकसान ये होता है कि व्यक्ति पूरी सच्चाई जानने की कोशिश ही नहीं करता जिससे वह बीमारी का सही पता नहीं लगा पाता है. फलस्वरूप सही इलाज के अभाव में पूरी ज़िन्दगी उस बीमारी से परेशान रहता है उससे छुटकारा ही हासिल नहीं कर पाता है अर्थात सिक्के के दूसरे पहलू को समझने बल्कि देखने की कोशिश ही नहीं करता और वह जिस बीमारी के साथ पैदा होता है उसी बीमारी के साथ मर जाता है. उससे भी खतरनाक मामला ये है कि व्यक्ति वही बीमारी बिना बताये विरासत में अपनी नस्लों को देकर चला जाता है और बीमारी की जानकारी न होने के कारण उसकी नस्लें भी बीमारी का इलाज नहीं करती हैं और यही क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है. अर्थात नस्लों की जगह बीमार नस्लों (मानसिक गुलाम पैदा करने) का सिलसिला चलता रहता है
इस दावे को करने वाले लोगों के द्वारा इस आधे अधूरे तथ्य को इस ढिठाई व बेशर्मी से चिल्ला-चिल्ला कर प्रस्तुत किया गया है कि आज यही आधा अधूरा तथ्य समाज की मान्यता बन गया है और इस मान्यता से इतर कोई कुछ सुनने व जानने को तैयार ही नहीं है. किन्तु जब मैंने सिक्के के दूसरे पहलू को समझने का प्रयास किया तो दूसरे पहलू को समझने,बल्कि कहना चाहिए सिर्फ देखने भर से ये दावा कि मुस्लिम समाज में जन्म के आधार पर फ़ैली ऊँच-नीच की भावना हिन्दू समाज की देन है, रेत के महल से भी अधिक कमज़ोर नज़र आया और एक ही झटके में पूरा दावा रेत के महल की भांति भरभरा कर गिर गया. मेरा विश्वास है जो भी व्यक्ति सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर करेगा उसके सामने उक्त दावा बिल्कुल खोखला नज़र आएगा.
आप स्वयं मात्र कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर एक नज़र दौडाएं. आईये देखें
(1) यह तो बहुत हद तक सत्य है कि सवर्ण (ऊंची ज़ात के हिन्दू) जो इस्लाम में दाखिल हुए उनमें से अधिकांश का मुख्य उद्देश्य मात्र अपनी (राजनैतिक व धार्मिक) शासन सत्ता बनाये रखना था. चूंकि उनको अपनी शासन सत्ता भर से मतलब था इसलिए उनको न तो इस्लाम से कोई मतलब था न इस्लाम में मौजूद मसावात के सिद्धांत से. उनका उद्देश्य मात्र शासन सत्ता में बने रहना था. इसका सबूत यह भी है कि इसमें से बहुतों ने अपनी जातिसूचक शब्दों (किचलू बट्ट चौधरी राजपूत आदि) को अपने नाम के आगे बचाये रखा या फिर अशराफ वर्ग की जाति सूचक शब्दों (खान सैयद सिद्दीकी शेख आदि) को अपना लिया. सवर्ण हिन्दुओं की ही भांति लगभग-लगभग तमाम अशराफ मुस्लिम शासकों को भी इस्लामी सिद्धांत अथवा न्याय से नहीं बल्कि अपनी शासन सत्ता भर से मतलब था
इसलिए तमाम मुस्लिम शासकों ने बहुजनों (शूद्रों अछूतों) पर धर्म के नाम पर हो रहे अत्याचार भारतीय सामाजिक संरचना आदि को सुधारने का और न तो रोकने का कोई प्रयास किया और न ही उनकी दशा बदलने हेतु कभी कोई कदम उठाया और न उनके साथ न्याय करने का ही कभी कोई प्रयास किया जो कि इस्लाम का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों में-से एक है. अशराफ मुस्लिम शासक के यहाँ किसी को राजनैतिक पद देने से पहले उसकी जाति/ नस्ल का पता लगवाना सामान्य प्रक्रिया थी.
किसी पसमांदा [अजलाफ़ (असभ्य)अर्ज़ाल (नीच मलेछ)] और बहुजन (शुद्र, अछूत) से परिवर्तित को इस योग्य नहीं समझा जाता था कि वो राजकाज के काम को सही से अंजाम दे सकेगा. लेकिन अपवाद स्वरूप मोहम्मद तुगलक मुबारक शाह ख़िलजी, रजिया के शासनकाल के इक्का दुक्का उदाहरण को छोड़कर लगभग प्रत्येक शासक ने पसमांदा और नवमुस्लिमों को योग्यता की जगह उनकी जातियाँ देखकर अपने राज्य में पद दिए इल्तुतमिश जैसा सुल्तान जो स्वयं गुलाम नहीं वरन् दर गुलाम (गुलाम का गुलाम) था ने अपने वज़ीर निजामुलमुल्क जुनैदी को वज़ीर के पद से मात्र इसलिये हटा दिया था क्योंकि उसके सम्बन्ध में ये पता चला था कि उसका दादा जोलाहा था. (संदर्भ- तारीखे फिरोजशाही- लेखक जियाउद्दीन बरनी)चूंकि दोनों का उद्देश्य अपनी सत्ता को बनाये रखना था इसलिए इन्होंने हर किसी को उसके हाल पर छोड़ दिया फलस्वरूप वह वर्ग जो शासक बने रहने के लिए धर्म परिवर्तित करके मुसलमान हुआ था उसने मुस्लिम शासको के सहयोग से आमजन पर वर्ण व्यवस्था जैसी परम्परा को छोटी जातियों से धर्म परिवर्तित कर इस्लाम में दाखिल हुए लोगो पर भी बरकरार रखा
इस्लाम जब भारत में दाखिल हुआ तब छोटी कही जाने वाली जातियों के लोग इस्लाम में मौजूद मसावात (समानता) देख कर इसलिए इस्लाम में दाखिल हुए क्योंकि वह अपने को नीच/ अछूत/ शूद्र की स्थिति से निकालना चाहते थे जिसमें वह सदियों से पिस रहे थे क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था तथाकथित शूद्रों को बुद्धा (महात्मा बुद्ध) की क्रांति की कई सदियों बाद पुनः कोई विकल्प दिखा था जहाँ वह अपनी स्थिति सम्मानजनक बना सकते थे. उनके पास बुद्धा की क्रांति के बाद फिर एक अवसर आया था जब वह पुनः मानव बन सकते थे और तमाम मानवीय अधिकारों के साथ जीवनयापन कर सकते थे. इतिहास गवाह है कि उन्होंने बिना किसी अन्य लालच के मात्र सम्मान समानता व मानवीय अधिकारों को प्राप्त करने के उद्देश्य से इस अवसर को हाथों हाथ लिया. अगर सवर्णों की भांति शूद्र-अछूत भी किसी (धन शासन सत्ता आदि की) लालच में धर्म परिवर्तित कर के मुसलमान बनते तो आज शूद्रो-अछूतों से धर्म परिवर्तित लोगों के वंशजों की दशा ये न होती. निःसन्देह शूद्र-अछूत समाज मात्र मसावात/ समानता व मानवीय अधिकारों को पाने के उद्देश्य से इस्लाम में दाखिल हुअ था
अब आप खुद सोचें इन्सान जिस हालात (परंपरा/ नियम) से बचने के लिए धर्म या जगह बदलेगा वह उन परंपराओं, नियमों को क्यों मानेगा? या वही परम्परा और नियम खुद अपने साथ ले कर नयी जगह या नए धर्म में क्यों जाएगा? क्या ये बात किसी भी तरह काबिले-कुबूल है कि शूद्र-अछूत आगे भी शूद्र-अछूत बने रहना चाहते थे इसलिए हिन्दू धर्म की उन परम्पराओं के साथ इस्लाम में दाखिल हुए?
अशराफ अजलाफ अरज़ाल शब्द अरबी भाषा के हैं जो क्रमशः उच्च असभ्य निकृष्ट/ नीच के अर्थो में प्रयुक्त होता है. ये ऐतिहासिक सत्य है कि कोई शब्द किसी समाज अथवा भाषा में तभी पाया जाता है जब उस समाज को उस शब्द की व्यवहार में आवश्यकता होती है. यदि ऊँच-नीच की ये भावना अरब में न होती तो ये शब्द अरबी भाषा में कैसे आते इसी ऊँच-नीच के विरुद्ध रसूल अल्लाह मुहम्मद (सल्ल०) का पूरा संघर्ष स्वयं इसका गवाह है
हेदाया को इसलामी कानून की विशेषकर हनफी विचारधारा की सबसे प्रमाणित पुस्तक मानी जाती है जिसे बुरहानुद्दीन अबुल हसन मरगनानी नामक व्यक्ति ने अरबी भाषा में 593 हिजरी में इमाम अबू हनीफा, इमाम अबू युसूफ, इमाम मोहम्मद की बातों को आधार बनाकर लिखी थी ये इमाम चारों खलीफाओं के ठीक बाद के दौर के हैं. हेदाया पर फ़तहुल कदीर नाम से इब्ने हमाम ने टीका लिखी जो बेरुत (लेबनान) से प्रकाशित हुई. इस किताब के पेज नम्बर 193 पर कहा गया है कि हजाम, जुलाहा और रंगरेज बराबर के नहीं हैं क्योंकि इनके काम नीच और घटिया हैं. लेखक ने इनके काम के लिए दनी शब्द का प्रयोग किया है. अरबी जुबान में किसी की हीनता दर्शाने के लिए दनी से सटीक शब्द शायद कोई नहीं है. इसी पुस्तक के पेज नम्बर 188 में कहा गया है कि- ‘सैयद सैयद के बराबर है, शेख फारुकी, उसमानी, सिद्दीकी लोग आपस में बराबर हैं. इसी पुस्तक में ये हिदायत भी दी गयी है कि- ‘बैतार (गाँव में घूम कर ज़ख्म साफ़ करने वाला), अत्तार (तेल, इत्र बेचने वाला) से शादी कर सकता है, बजाज और अत्तार आपस में शादी कर सकते हैं. दर्जी, रंगरेज, हजाम और फर्राश (झाड़ू देने वाला) एक दूसरे के बराबर नहीं हैं. किताब में इस तरह की ऊँच-नीच से लबरेज़ बहुत-सी इबारतें हैं. दूसरे कई अरबी लेखकों भी ऊँच-नीच को कुबूल किया है क्या ये विश्वास किया जा सकता है कि उन सब लेखकों पर भी भारत का असर था.
हजाम जुलाहा और रंगरेज बराबर के नहीं हैं क्योंकि इनके काम नीच और घटिया हैं. लेखक ने इनके काम के लिए दनी शब्द का प्रयोग किया है. अरबी जुबान में किसी की हीनता दर्शाने के लिए दनी से सटीक शब्द शायद कोई नहीं है. इसी पुस्तक के पेज नम्बर 188 में कहा गया है कि- सैयद सैयद के बराबर है शेख फारुकी उसमानी सिद्दीकी लोग आपस में बराबर हैं. इसी पुस्तक में ये हिदायत भी दी गयी है कि-बैतार (गाँव में घूम कर ज़ख्म साफ़ करने वाला)अत्तार (तेल इत्र बेचने वाला) से शादी कर सकता है बजाज और अत्तार आपस में शादी कर सकते हैं. दर्जी रंगरेज हजाम और फर्राश (झाड़ू देने वाला) एक दूसरे के बराबर नहीं हैं. किताब में इस तरह की ऊँच-नीच से लबरेज़ बहुत-सी इबारतें हैं. दूसरे कई अरबी लेखकों भी ऊँच-नीच को कुबूल किया है क्या ये विश्वास किया जा सकता है कि उन सब लेखकों पर भी भारत का असर था.
(5) हसब नसब (वंश) की बिनाह पर किसी को अशरफ/ श्रेष्ठ और किसी को राज़ील/ नीच मानना और ज़ात-पात के आधार पर ऊँच-नीच को दुरुस्त मानना जिन भारतीय मुस्लिमों के अमल/ व्यवहार और इबारतों/ कथनों से साबित है उनमें से कुछ प्रमुख बड़े नाम यूँ है जिनकी वजह से भारत के मुसलमानों में ये ज़हर फैला और इसे धार्मिक आधार पर सही समझा जाने लगा. वे अहम नाम गौर करे.
तथाकथित आला हज़रत इमाम अहमद रजा खान साहब तथाकथित हकीमुल उम्मत मौलाना अशरफ अली थानवी साहब तथाकथित अज़हरुलहिंद मौलाना कासिम नानौत्वी साहब जनाब सैयद हसमत अली साहब तथाकथित हकीमुल उम्मत मुफ़्ती जनाब अहमद यार खान साहब सर सैयद अहमद खान साहब प्रसिद्ध इतिहासकार जनाब सैयद ज़ियाउद्दीन बर्नी साहब इत्यादि
उक्त नामों में सर सैयद व बरनी को छोड़कर शेष नाम अपने-अपने मकतबे फ़िक्र (विचारधारा) में इतने बड़े समझे जाते हैं कि इनके विषय में आमजन में ये मान्यता स्थापित है कि इनका कथन इस्लाम धर्म से अलग हो ही नहीं सकता. ये सब नाम उन लोगों के हैं जो खुद को विदेशी नस्ल का होना बताते हैं (विशेषकर अरबी नस्ल का) और इनके सम्बन्ध में मान्यता भी यही है कि इनके पूर्वज विदेशी विशेषकर अरबी ही है.
अब बताएं भारतीय मुसलमानों में इस बुराई का ज़िम्मेदार कौन क्या अब भी आपका जवाब है - हिन्दू धर्म भारतीय परम्पराएँ और हिन्दू धर्म से इस्लाम में दाखिल हुए बहुजन (पिछड़े आदिवासी) और उनके द्वारा लाई गई उनकी (हिन्दू धर्म की) परम्पराएँ
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है
यह लेख 15 सितम्बर 2017 को https://hindi.roundtableindia.co.in पर प्रकाशित हो चुका है।
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