बेबाक क़लमः क्यों भुला दिया गए जिन्ना को चुनौती देने वाले अब्दुल क़य्यूम अंसारी

अब्दुल क़य्यूम अंसारी एक ऐसी शख़्सियत का नाम है जिस ने जिन्ना की पाकिस्तान की मुहिम की काट के लिए मोमिन कॉन्फ्रेंस बनाई। 1946 में मुस्लिम लीग के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ कर 6 सीटें जीतीं। पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए मुस्लिम नौजवानों का संगठन बनाया... फिर आख़िर ऐसी अज़ीम शख़्सियत को क्यों भुला दिया गया?


25 April 20228 min read

Author: Yusuf

एक जुलाहा पठान से इतना डर गया

मोटर से उतरा और वहीं पे मर गया।”

यह तुकबंदी बिहार के एक मौजूदा विधायक के नाना ने 1973 में ‘बाबा-ए-क़ौम’ अब्दुल क़य्यूम अंसारी के बारे में की थी। अब्दुल क़य्यूम अंसारी वह अज़ीम शख़्सियत रहें हैं जिन्होंने जिन्ना की सांप्रदायिक राजनीति और धर्म के आधार पर अलग देश, पाकिस्तान बनाने की कोशिशों का डट कर विरोध किया था। जिस ज़माने में मुस्लिम लीग ख़ुद को देश के मुसलमानों की अकेली ठेकेदार समझ रही थी उसी ज़माने में अंसारी ने उसे चुनाव में चुनौती दी। बिहार विधान सभा में 6 सीटें जीत कर यह साबित कर दिया सब मुसलमान जिन्ना के पीछे नहीं हैं। तब चुनाव पृथक निर्वाचन प्रणाली से हुए थे अर्थात हिन्दू समाज ने हिन्दू उम्मीदवारों को वोट दिया और मुसलमानों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को।

आज ‘बाबा-ए-क़ौम’ अब्दुल क़य्यूम अंसारी का 115वां जन्म दिन है। इस मौक़े पर देश, समाज और वंचितों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाली इस अज़ीम शख़्सियत को याद करना प्रासांगिक होगा। उन की पैदाइश 1 जुलाई 1905 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले के नवली गांव में हुई थी। बाद में उन का परिवार बिहार के डेहरी-आन-सोन चला गया। उन्होंने दसवीं तक की पढ़ाई सासाराम में की, बाद में उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ और कलकत्ता (अब कोलकाता) और इलाहबाद (अब प्रयागराज) तक का सफ़र तय किया। उन का तअल्लुक़ एक धनी परिवार से था लेकिन आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए उन्होंने शान-ओ-शौक़त छोड़ कर सादगी की ज़िंदगी अपना ली।

बहुत कम उम्र में उन्होंने ख़ुद को आज़ादी की लड़ाई में झोंक दिया था। वह 16 साल की उम्र में जेल भी गए। दरअसल हुआ यह कि कांग्रेस के आह्वान पर उन्होंने सरकारी स्कूल छोड़ दिया। उन के साथ तमाम बच्चों ने भी सरकारी स्कूल छोड़ा। ऐसे बच्चों के लिए उन्होंने एक स्कूल की स्थापना की। यह घटना असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलन के दौरान की है। इन आंदोलनों में हिस्सा लेने की वजह से ही उन्हें कम उम्र में गिरफ़्तार करके जेल भेजा गया। जेल से छूटने के बाद भी उन का आंदोलनों में हिस्सा लेना जारी रहा। इसी वजह से उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इधर-उधर भागना पड़ा।

उन्होंने एक युवा नेता के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिल कर काम किया। 1928 में कलकत्ता की अपनी यात्रा के दौरान https://hi.wikipedia.org/wiki/साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ छात्रों के आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक नीतियों का खुल कर विरोध किया। वह भारत को विभाजित करके पाकिस्तान बनाने की मुस्लिम लीग की मांग के ख़िलाफ़ थे। मुस्लिम लीग से मुकाबले के लिए उन्होंने ‘मोमिन आंदोलन’ शुरू किया। इस बैनर के तहत उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से पिछड़े मोमिन समुदाय के उत्थान के लिए काम किया, जो उस समय भारत की मुस्लिम आबादी का कम से कम आधा था।

अब्दुल क़य्यूम अंसारी जीवन भर अखिल भारतीय मोमिन कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष रहे। मोमिन आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का समर्थन किया जिसे वह एक अखंड भारत तथा सामाजिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र की स्थापना और विकास के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने कारीगर और बुनकर समुदायों के कल्याण और देश के कपड़ा उद्योग में हथकरघा क्षेत्र के विकास के लिए भी काम किया। बिहार की राजनीति में ग़रीब, पिछड़े और दलितों के मसीहा के रूप में उभरे अब्दुल कयूम अंसारी ने शिक्षा और साक्षरता के प्रसार के लिए काम किया। उन्हीं की कोशिशों से 1953 में पहला अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया था।
अब्दुल क़य्यूम अंसारी एक कुशल पत्रकार, लेखक और शायर भी थे। वह उर्दू साप्ताहिक ‘अल-इस्लाह’ (द रिफॉर्म) और एक उर्दू मासिक 'मसावात' (समानता) के सम्पादक थे। उन के अख़बारों के नाम से ही उन की विचारधारा का पता चल जाता है। वह पूरे समाज को बराबरी पर लाना चाहते थे। ख़ास कर कमज़ोर वर्गों को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से मज़बूत बनाने के हक़ में थे। इस के लिए उन्होंने जी तोड़ संघर्ष किया। आज़ादी से पहले आंदोलनों के ज़रिए और आज़ादी के बाद सरकार के मंत्री के रूप में दबे कुचले समाज के उत्थान के लिए भरसक प्रयास किया।

अब्दुल क़य्यूम अंसारी सही मायनों में जनता के नेता थे। विशेष रूप से वंचित और ग़रीब लोगों में सब से क़रीब थे। वह अपनी मृत्यु तक कांग्रेस के सच्चे और वफ़ादार नेताओं में से एक थे। वह लगभग सभी मुख्यमंत्रियों के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री रहे। वह सभी समुदाय के ग़रीबों के मसीहा थे। यह वही महान शख़्सियत हैं जिन्होंने बिहार के लगभग सभी ज़िलों में ग़रीब छात्रों के लिए छात्रावास और मुफ़्त भोजन की स्थापना की थी। उन्हीं की शुरु की गई इस योजना को आज केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर पूरे भारत में मिड-डे मील योजना के नाम से चला रही हैं।

उन की पार्टी मोमिन कॉन्फ्रेंस ने 1946 का आम चुनाव लड़ा। मुस्लिम लीग के ख़िलाफ़ बिहार विधानसभा में छह सीटें जीतने में कामयाब रही। इस प्रकार वह बिहार केसरी श्री कृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल में बिहार के मंत्री बनने वाले पहले मोमिन बन गए। युवा मंत्री के रूप में वो बिहार केसरी श्री बाबू और बिहार विभूति अनुग्रह बाबू दोनों के विश्वास पात्र बन कर रहे। बाद में उन्होंने मोमिन कॉन्फ्रेंस को एक राजनीतिक संस्था के रूप में भंग कर इसे एक सामाजिक और आर्थिक संगठन बना दिया और ख़ुद कांग्रेस में शामिल हो गए। वह लगभग 17 वर्षों तक बिहार मंत्रिमंडल में मंत्री रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण विभागों को संभाला और निस्वार्थ सेवा और ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाया।

अक्टूबर 1947 में जब क़बाइलियों के भेष में पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया तो उस की निंदा करने वाले क़य्यूम अंसारी पहले मुस्लिम नेता थे। उन्होंने भारत के मुसलमानों को देश के सच्चे नागरिकों के रूप में पाकिस्तान की तरफ़ से किए गए इस आक्रामण का मुक़ाबला करने के लिए प्रेरित किया। इस के बाद उन्होंने 1947 में पाक अधिकृत कश्मीर को ‘आज़ाद’ कराने के लिए ‘भारतीय मुस्लिम युवा कश्मीर मोर्चा’ की स्थापना की। बाद में, उन्होंने सितंबर 1948 के दौरान हैदराबाद में रज़ाकारों के भारत विरोधी विद्रोह में भारत सरकार का समर्थन करने के लिए भारतीय मुसलमानों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अफ़सोस की बात यह है कि भारतीय समाज ख़ास कर मुस्लिम समाज ने स्वतंत्रता सेनानी, सच्चे देश प्रेमी, समाज सुधारक और हमेशा वंचितों के हक़ की आवाज़ उठाने वाली इस शख़्सियत को भुला दिया। जिस व्यक्ति ने देश के लिए क़ुर्बानी दी, जिन्ना के ‘टू नेशन फार्मूले’ का डट कर मुक़ाबला किया, उसे भुला दिया गाया। 1 जुलाई 2005 को, भारत सरकार ने आज़ादी की लड़ाई और सामाजिक उत्थान में उन के योगदान को याद करते हुए डाक टिकट जारी किया। बेहतर तो यह होता कि गंगा-जमुनी तहज़ीब को क़ायम करने के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश में उन के नाम से केंद्रीय विश्वविद्यालय खोला जाता।

अब सवाल यह उठता है कि आख़िर एक अज़ीम शख़्सियत को आख़िर क्यों भुला दिया गया? क्या सिर्फ़ इस लिए कि उन का ताल्लुक़ समाज के कमज़ोर (पसमांदा) तबक़े से था और कमज़ोर तबक़ों को बराबरी और सम्मान दिलाना चाहते थे! समाज में बराबरी के विरोधी ब्राह्मणवादी (सय्यदवादी) सोच के लोगों ने उन के विचारों और उन के योगदान पर हमेशा पर्दा डालने की कोशिश की। बिहार में पसमांदा राजनीति के अगुवा, पूर्व सांसद अली अनवर अंसारी ने अपनी किताब मसावात की जंग में विस्तार से बताया है कि अशराफ़िया तबक़े के मुस्लिम नेताओं के साथ ही ग़ैर अंसारी पिछड़े तबक़े के मुस्लिम नेता अब्दुल क़य्यूम अंसारी के बारे में कितनी घटिया सोच रखते थे।

मसावात की जंग के पेज न० 143 पर अली अनवर लिखते हैं कि ग़ुलाम सरवर (बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष) ने एक इंटरव्यू में अब्दुल क़य्यूम अंसारी को तत्कालीन मुख्यमंत्री के.बी. सहाय का ‘चमचा नंबर वन’ बताते हुए कहा है कि अंसारी को चमचागिरी के एवज़ में कैबिनेट मंत्री का पद मिल गया था। क़य्यूम अंसारी आज़ादी से पहले अर्थात 1946 में कैबिनेट मंत्री थे। पूरा देश जानता है कि वह अगर कैबिनेट मंत्री थे तो किसी श्री बाबू, के.बी. सहाय या केदार पांडेय के रहम-ओ-करम पर नहीं बल्कि अपने जनाधार और आज़ादी की लड़ाई में अपने योगदान की बदौलत थे। मंत्री का ओहदा तो उन के लिए बहुत छोटा था।

कांग्रेस के पुराने लोग बताते है कि 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अब्दुल क़य्यूम अंसारी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का मन बना लिया था। दिल्ली में सब कुछ तय हो गया था और उन्हें शपथ लेने की तैयारी करने को कह कर पटना भेज दिया गया था। लेकिन उसी समय एक हादसा हो गया। डेहरी-आरा नहर का बांध टूटने से अमियावर गाँव में बाढ़ आ गई। वह हालात का जायज़ा लेने गए थे। गाँव को हुए नुक़सान का निरीक्षण करने और बेघर लोगों को राहत पहुंचाने के दौरान ही अचानक हार्ट अटैक से 18 जनवरी 1973 को उन की मृत्यु हो गई। यह भी कहा जाता है कि उन्हें पता चल गया था कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला पलटा जा चुका है। इसी सदमे में उन की मौत हुई। इसी वजह से पठान नेता ने वह तुकबंदी की थी जिस का ज़िक्र शुरु में किया गया है।

बहरहाल अब्दुल क़य्यूम अंसारी और उन की विचारधारा आज और भी प्रासंगिक है। देश भर में बरसों से हाशिए पर रह रहे पिछड़े तबक़े के मुसलमान यानि पसमांदा मुसलमान अब राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो कर केंद्र और राज्यों की सत्ता में अपनी हिस्सेदारी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए अब्दुल क़य्यूम अंसारी मशाल-ए-राह हैं। उन की ज़िंदगी आने वाली पीढ़ियों को रास्ता दिखाती रहेगी। ऐसे सच्चे देशप्रेमी, समाज सुधारक नेता को उन की यौम-ए-पैदाइश (यौम-ए-मसावात) के मौक़े पर दिल की गहराइयों से ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करता हूँ।



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