पसमांदा उर्दू/फ़ारसी भाषा का शब्द है जिस का अर्थ होता है “जो पीछे रह गया है”। पसमांदा शब्द मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी, दलित और पिछड़े लोगों के लिए बोला जाता है। पसमांदा अन्दोलन का इतिहास बाबा कबीर से शुरू होता है।बहुत सालों बाद बाबा कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी (1890-1953) ने बाज़ाब्ता सांगठनिक रूप में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन (जमीयतुल मोमिनीन/ मोमिन कांफ्रेंस) तैयार किया
Author: Faizi
“जज़्बाती सवालों से हटकर, रोज़ी रोटी, सामाजिक जागरूकता और सत्ता में हिस्सेदारी”
पसमांदा उर्दू/फ़ारसी भाषा का शब्द है जिस का अर्थ होता है “जो पीछे रह गया है”। पसमांदा शब्द मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी, दलित और पिछड़े लोगों के लिए बोला जाता है। पसमांदा अन्दोलन का इतिहास बाबा कबीर से शुरू होता है। बाबा कबीर वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इस्लाम/मुसलमान में व्याप्त जातिवाद, ऊँच-नीच पर मुखरता से आवाज़ उठाई। वह निडर हो कर अशराफ़ उलेमा की आलोचना करते हैं फिर आगे बढ़ कर पूरे भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद की बुराई पर चोट करते हैं। इस प्रकार वह सिर्फ इस्लाम/मुसलमान समाज के ही नहीं वरन पूरे भारतीय समाज के लिए जाति उन्मूलन के योद्धा बन कर उभरते हैं लेकिन बाबा कबीर की आवाज़ और आंदोलन को कुंद करने के लिए उन की धार्मिक हैसियत को ख़त्म करना ज़रूरी था। जिस के लिए अशराफ़ उलेमा ने उन पर कुफ़्र का फ़तवा लगाया फिर कहा कि वह तो मुसलमान ही नहीं। ऐसा करके अशराफ़ उन्हें मुस्लिम समाज के घेरे से बाहर करने की कोशिश करता है ताकि मुसलमानों पर उन की बात का असर ना हो और इस्लाम/मुसलमान में जाति व्यवस्था जस की तस बनी रहे और अशराफ़ के वर्चस्व पर कोई आँच ना आये वहीं दूसरी ओर उन को ब्राह्मण स्त्री की कोख से उत्पन्न बता कर उन के मानने वालों के मन-मस्तिष्क में यह बात बैठाने की कोशिश की गई कि बहुजन के माननीय केवल ब्राह्मण ही हो सकते हैं। इस प्रकार जातीय अस्मियता को बचाये रखने का खेल खेला गया। बहुत सालों बाद बाबा कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी (1890-1953) ने बाज़ाब्ता सांगठनिक रूप में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन (जमीयतुल मोमिनीन/ मोमिन कांफ्रेंस) तैयार किया जो भारत के अलावा नेपाल, श्रीलंका और वर्मा तक फैला हुआ था। आसिम बिहारी ने व्यवहारिक रूप से सभी पसमांदा जातियों की एकता पर महती कार्य अंजाम देते हुए उस समय के सभी छोटे-बड़े पसमांदा जातियों के संगठनों के अस्तित्व को वैधता देते हुए 'बोर्ड ऑफ मुस्लिम वोकेशनल एंड इंडस्ट्री क्लासेज' की स्थापना कर उनको एक आंदोलन का रूप दिया। आसिम बिहारी भारत के वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने प्रौढ़ शिक्षा को बाक़ायदा एक पंचवर्षीय योजना बना कर क्रियान्वित किया। पसमांदा मुस्लिम महिलाओं के लिए स्कूल खुलवाए, जातिवाद पर व्यक्तिगत और सांगठनिक रूप में चोट किया, देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारत विभाजन के सबसे पुरजोर विरोधी रहे।
अशराफ़ उलेमा द्वारा आसिम बिहारी के आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए इस्लामी मसलक/फ़िरक़े का खेल खेला गया और इस्लाम की कई एक व्याख्या करते हुए देवबन्दी, बरेलवी, अहले हदीस आदि नामों से फ़िरक़े और मसलक बनाये गए जिस का नेतृत्व अशराफ़ उलेमा ने अपने पास रखा। पसमांदा की एकता धार्मिक सम्प्रदायों के नाम पर छिन्न-भिन्न होनी शुरू हो गयी लेकिन आसिम बिहारी ने अपने कुशल नेतृत्व से इस को संभाले रखा और कौन मसलक/फ़िरक़ा सच्चा इस्लाम है? इस बहस में न पड़ते हुए पसमांदा को फ़िरक़े/मसलक से ऊपर उठ कर समाज के लिए काम करने पर आमादा करने में सफल रहे। आसिम बिहारी शुरू में संगठन को मुख्य धारा की राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सा लेने से दूर रखना चाहते थे और संगठन को सामाजिक संगठन ही बनाये रखना चाहते थे ताकि समाज के जागरूकता का कार्यक्रम बिना किसी अड़चन के सुचारू रूप से चलता रहे लेकिन कुछ परिस्तिथयों की विवशता के कारण देश की स्वतंत्रता के पहले होने वाले दोनो चुनावों में हिस्सा लिया और अप्रत्याशित सफलता भी प्राप्त की परन्तु इस के बावजूद भी संगठन के सामाजिक रूप को ही वरीयता देते रहे। लेकिन आसिम बिहारी के मृत्यु के बाद उनके संगठन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) के दूसरे स्तर के नेताओं में वह दूरदृष्टि नहीं थी और सत्ता में भागीदारी को ही प्रमुखता दी जिस की वजह से संगठन के सामाजिक ढांचे को ज़बरदस्त चोट पहुँची। संगठन से जुड़े लोग तो सत्ताधारी कांग्रेस से गठबंधन बनाकर सत्ता में तो हिस्सेदार हो गए लेकिन प्रथम पसमांदा अन्दोलन का सामाजिक आधार सिकुड़ता चला गया और एक शानदार, अज़ीमुश्शान अंतरराष्ट्रीय स्तर का पसमांदा आंदोलन अंसारियों (जुलाहा) का कमज़ोर राजनैतिक अन्दोलन बनकर दिल्ली और बिहार के एक कमरे तक सिमट गया। आज भी मोमिन कॉन्फ्रेंस नाम से अनेक संगठन आप को मिल जाएंगे। इस प्रकार जिस पसमांदा आंदोलन को आसिम बिहारी ने अपना रक्त पिला कर और अपना अस्थि-मांस खिला कर पाला-पोसा था वो कुछ लोगो की ग़लत नीतियों, स्वार्थ का शिकार हुआ। अशराफ़ का मक़सद एक ओर पसमांदा समाज को मसलक/फ़िरक़े में बाँट कर उनकी एकता छिन्न-भिन्न करना और दूसरी ओर स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के लिए पसमांदा समाज को 'धर्म और धार्मिक एकता' के धोखे की नीति में उलझाये रखना था।
आंदोलन के नेताओं के एक बड़े वर्ग को जाति विशेष (अंसारी) के महान नेता और 'पूरे मुस्लिम समाज का नेता होने के झांसे' में रखने के कारण पसमांदा आंदोलन समय से पहले ही वीरगति को प्राप्त हुआ। जब प्रथम पसमांदा आंदोलन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस) अपने मरणासन्न स्थिति में थी ठीक उसी समय महाराष्ट्र से पसमांदा आन्दोलन को एक नया नेतृत्व शब्बीर अन्सारी के रूप में मिलता है जो महाराष्ट्र राज्य मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन (बाद में आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन) नामक संगठन बना कर पसमांदा समाज की उम्मीदों को आगे बढ़ाते हुए मण्डल कमीशन को लागू करवाने की मुहिम में पसमांदा का प्रतिनिधित्व बन कर उभरता है। आप ने मान्यवर कांशीराम जी के साथ भी कई बार मंच साझा किया। मण्डल कमीशन लागू होने के बाद भी महाराष्ट्र में ओबीसी की लिस्ट में अधिकतर पसमांदा जातियों को शामिल नहीं किया गया था। शब्बीर अन्सारी साहब ने इस के लिए जी-तोड़ मेहनत की। पूरे देश में जगह-जगह सम्मेलन, धरना प्रदर्शन आयोजित किया। इस कार्य मे उन के दो बड़े सहयोगी रहे, एक विलास सोनवाने और दूजे फ़िल्म स्टार दिलीप कुमार। आख़िरकार कामयाबी मिलती है और महाराष्ट्र सरकार पसमांदा वर्ग की लगभग सभी जातियों को ओबीसी के लिस्ट में शामिल कर लेती है। इसी दौरान देश में कांशीराम जी के नेतृत्व में बहुजन आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था। कांशीराम जी ने इस्लाम/मुस्लिम समाज में जातिवाद को स्वीकार करते हुए पसमांदा विमर्श को ना सिर्फ़ प्रमाणिकता प्रदान की बल्कि राजनीतिक सफलता मिलने पर सरकार में एक पसमांदा 'इश्तियाक़ अंसारी' को मंत्रिपद देते हुए बहुजन आंदोलन में पसमांदा की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए एक इतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत किया। जल्दी ही वह समझ गए थे कि अशराफ़ और ब्राह्मणों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। दोनों की रूचि और प्राथमिकता वंचित समाज को वंचित बनाये रखने में है। आख़िर में उन्होंने पसमांदा समाज को ही बहुजन समाज के दृष्टिकोण से तैयार करने की सोची।
इस के बाद पिछली सदी के आख़िरी दहाई में पसमांदा की एक अन्य जाति राईन (कुंजड़ा/कबाड़ी) से पसमांदा आंदोलन का नेतृत्व डॉ० एजाज़ अली (सर्जन) के रूप में उभरता है, जिन्होंने बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा (बाद में यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा) की स्थापना की जो बिहार सहित देश के अन्य भाग को प्रभावित करता है। प्रथम पसमांदा आंदोलन से मायूस हो चुके पसमांदा समाज में एक नई स्फूर्ति और चेतना का संचार होता है। इसी क्रम में पत्रकार अली अनवर की किताब 'मसावात की जंग' प्रकाशित होती है जो आसिम बिहारी के दिवार-ए-मोमिन, अल इकराम, अल मोमिन, मोमिन गैज़ेट के बाद एक मज़बूत दस्तावेज़ साबित होती है। अली अनवर साहब 'पसमांदा आवाज़' नामक पत्रिका का भी बहुत समय तक लगातार प्रकाशन करते रहे। उसी समय पसमांदा आंदोलन से जुड़े लोगों ने अली अनवर के नेतृत्व में पसमांदा शब्द का प्रतिपादन करते हुए पसमांदा मुस्लिम महाज़ की स्थापना किया जो बाद में चल कर आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ कहलाया। डॉ० एजाज़ अली और अली अनवर के पार्टी विशेष के सहयोग से संसद में पहुंचने के बाद पसमांदा आंदोलन की लौ कुछ मद्धिम ज़रूर हुई। सन् 2007 में मौलाना मसूद आलम फलाही द्वारा लिखित किताब 'हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान' आयी जिस ने पहली बार इस्लाम में पेवस्त जातिवाद की धार्मिक पृष्टभूमि को पूरी तरह बेनक़ाब कर दिया। हालांकि किताब उर्दू में थी फिर भी बड़ी तेजी से पसमांदा समाज के बीच लोकप्रिय हुई और पहली बार जातिवाद के इस्लामी आधार पर सवाल उठाने के लिए लोगों को ज़बान मिली। इस समय देश में पसमांदा के कई एक सामाजिक संगठन सक्रिय है जिनमें कुछ पसमांदा जातियों के अलग-अलग संगठन है तो कुछ पूरे पसमांदा समाज को लेकर चल रहें हैं। लेकिन बाबा कबीर और आसिम बिहारी के जाति उन्मूलन के कार्यक्रम में एक नाम ग़ाज़ीपुर, उ० प्र० से डॉ. एम. इक़बाल का जुड़ता है। अपनी तमाम ग़ुरबत, शारीरिक कमज़ोरियों और परेशानियों के बाद भी डॉ. इक़बाल पिछले 30 वर्षों से कम्युनिस्ट, बहुजन और पसमांदा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते रहें हैं। उन्होंने ‘मेरी आवाज सुनो’ नामक पुस्तिका का लेखन किया। पसमांदा मुस्लिम मोर्चा के संस्थापक अध्यक्ष रहे और, इस मुल्क में पसमांदा मुद्दों को आवाज़ देने वाली एक मात्र पत्रिका ‘पसमांदा पहल’ के मुख्य सम्पादक हैं।
इसी कड़ी में एक और नाम क्रांति-भूमि बिहार के दरभंगा निवासी डॉ० अय्यूब राईन का नाम जुड़ता है जो 2009 ई० से 'जर्नल ऑफ सोशल रियलिटी' नामक अंतर्राष्ट्रीय द्विभाषी रिसर्च पत्रिका के संस्थापक सम्पादक के रूप में पसमांदा विमर्श को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठा रहें हैं। पसमांदा दलित जातियों पर अब तक का सबसे गहन शोध पर आधारित उनकी पुस्तक '
दलित मुसलमान' भाग-1 (2013) और भाग-2 (2018), पसमांदा दलित जाति पमारिया पर आधारित शोध पुस्तक 'पमारिया' (2015) प्रकशित हो चुकी है। 'अंसारी नगीना' नामक शोध पुस्तक भी प्रकशित होने वाली है। आप पसमांदा दलितों के उत्थान के लिए साल 2012 ई० में गठित 'दलित मुस्लिम समाज' के संयोजक भी हैं। यही नहीं विगत दो वर्षों से उन का एक अनूठा प्रयोग 'दलित मुसलमानों का मेला' भी लगातार आयोजित हो रहा है। जिस के माध्यम से पसमांदा दलित जातियों के विमर्श को मुख्यधारा में स्थान दिलवाने की महत्वपूर्ण कोशिशें जारी हैं। हालांकि डॉ० एजाज़ अली की यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा और अली अनवर की आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ भी तमाम उतार चढ़ाव के बाद अभी भी अपनी सक्रियता बनाये हुए हैं। साथ ही साथ मरीन (समुद्री) इंजीनियरिंग के विद्यार्थी फ़ज़ल सिद्दीकी और अब्दुल्लाह मंसूर जैसे नौजवानों ने ‘द पसमांदा' एवं 'पसमांदा डेमोक्रेसी' नामक ऑनलाइन वेब पोर्टल के माध्यम से पसमांदा विमर्श को लगातार मुख्य धारा के मीडिया के केंद्र में ला रहें हैं।
पसमांदा आंदोलन ने इस्लाम/मुस्लिम समाज में व्याप्त छुआ-छूत, ऊँच-नीच, जातिवाद को एक बुराई मानते हुए इसे राष्ट्र निर्माण में एक बाधा के रूप में देखते हुए, इसका खुल कर विरोध किया है।
मुस्लिम समाज मे जहाँ एक ओर अशराफ़ मुसलमान (सैयद, शेख़, मुग़ल, पठान) अपने आप को दूसरे अन्य मुसलमानों से श्रेष्ठ मानते हैं वहीं दूसरी ओर पसमांदा (आदिवासी, दलित और पिछड़े) जातियों जैसे वनगुर्जर, महावत, बक़्क़ो, फ़क़ीर, पमारिया, नट, मेव, भटियारा, हलालखोर (भंगी), भिश्ती, कंजड़, गोरकन, धोबी, क़साई, कुंजड़ा, जुलाहा आदि के नाम सिर्फ नाम नहीं बल्कि गालियाँ और अपमान सूचक शब्द बन गए हैं। इस निरादर की भावना के साथ-साथ अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की सभी हिस्सेदारी अशराफ़ की झोली में चली जाती है, जब कि पसमांदा की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 90% है। लेकिन सत्ता में चाहे न्यायपालिका हो, कार्यपालिका हो या विधायिका या मुस्लिम क़ौम के नाम पर चलने वाले इदारे/संस्थान या NGOs हों, इन सब में पसमांदा की भागीदारी 'न' के बराबर है। अब तक के लोकसभा सदस्यों के मुस्लिम प्रतिनिधियों में अशराफ़ अपनी संख्या के दुगने से भी अधिक भागीदारी प्राप्त किये हुए हैं जब कि पसमांदा अपनी संख्या के अनुपात में 'न' के बराबर हैं। यह बात अब साफ़ हो चुकी है कि अशराफ़ अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की भीड़ दिखा कर सिर्फ अपना हित साधता रहा है मज़हबी या धार्मिक पहचान की साम्प्रदायिक राजनीति शासक वर्गीय अशराफ़ की राजनीति है जिस से वह अपना हित सुरक्षित रखता है।
अशराफ़ सदैव मुस्लिम एकता का राग अलापता है। वह यह जनता है कि जब भी मुस्लिम एकता बनेगी तो अशराफ़ ही उसका लीडर बनेगा। यही एकता उन्हें अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बनाती है, जिस की वजह से अशराफ़ को इज़्ज़त, शोहरत, पद और संसद तथा विधान सभाओं में सम्मानजनक स्थान मिलता है। मुस्लिम एकता अशराफ़ की ज़रूरत है और पसमांदा एकता वंचित मुसलमानों की ज़रूरत है। अगर पसमांदा एकता बनती है तो वंचित मुसलमानों को भी उपर्युक्त लाभ मिल सकता है।
प्रमुख माँगें
धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के आधार पर संविधान की धारा 341 पर 1950 के राष्ट्रपति महोदय के आदेश के पैरा 3 को समाप्त कर सभी धर्मो के दलितों के लिए एक समान रूप से सभी स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था की जाय।
मुसलमानों एवं अल्पसंख्यकों के नाम पर चलायी जाने वाली सभी संस्थाओं एवं संगठनों जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, वक़्फ़ बोर्ड, बड़े मदरसे, इमारत-ए-शरिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, इन्ट्रीगल यूनिवर्सिटी आदि में पसमांदा की आबादी के अनुसार उन का कोटा निर्धारित कर आरक्षण की व्यवस्था की जाए।
सभी राजनैतिक पार्टियाँ पसमांदा को उनकी आबादी के अनुसार चुनाव में टिकट देना सुनश्चित करें।
पसमांदा को राजनैतिक भागेदारी सुनिश्चित करने के लिए ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत, ज़िला पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम चुनावो में उनकी आबादी के अनुसार सीट आरक्षित किया जाए।
पिछड़े (OBC) आरक्षण को कर्पूरी ठाकुर फार्मूले के अनुसार पिछड़े और अतिपिछड़े में विभक्त कर सभी पसमांदा जातियों को अतिपिछड़े कोटे में स्थान सुनिश्चित किया जाए।
अनुसूचित जनजाति पसमांदा की पहचान कर उन को एस० टी० आरक्षण में शामिल किया जाय। एवं बहुत सी पिछड़ी मुस्लिम जातियाँ जो ओबीसी आरक्षण में शामिल होने से छूट गयी हैं उन को शामिल किया जाय।
केंद्र एवं राज्य सरकारों के अधीन पिछड़ा वर्ग आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में पसमांदा समाज का एक सदस्य स्थायी रूप से नामित किया जाय।
केंद्र एवं राज्य सरकारों के अधीन सभी अल्पसंख्यक प्रतिष्ठानों एवं संस्थानों में पसमांदा की भागीदारी एवं उनकी संख्या के अनुसार सुनिश्चित किया जाए।
अल्पसंख्यकों के विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आवंटित बजट का एक बड़ा भाग पसमांदा के हितकारी कार्यों में ख़र्च किया जाए।
आभार: पसमांदा पहल के मुख्य सम्पादक डॉ० एम० इक़बाल साहब और आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय महासचिव वक़ार अहमद हवारी साहेबान का धन्यवाद करता हूँ जिन के वैचारिक निर्देशन का लेख को लिखने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है
फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी
लेखक, अनुवादक, सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं।
यह लेख https://hindi.roundtableindia.co.in Round Table India पर Posted on: October 22, 2018 को प्रकाशित हो चूका है
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