जन-संहार के माध्यम के रूप में मीडिया

'होटल रवांडा' फ़िल्म इसी रेडियों की आवाज़ से शुरू होती है। रेडियों हुतू समुदाय की भावनाओं को भड़काने के लिए झूठा प्रोपोगेंडा चलाते हैं। उनसे कहा जाता है कि तुत्सी राजतन्त्र कायम करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें हुतू लोगों को गुलाम बनाकर रखा जाएगा। इन रेडियों स्टेशनों ने हुतू और तुत्सी समुदाय के बीच किसी भी बातचीत या शांति समझौते का खुलकर विरोध किया, शांति के प्रयासों के खिलाफ अभियान चलाया, हुतू मिलिशिया समूहों का समर्थन किया। इस सन्दर्भ में एलिन थॉम्पसन द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘द मीडिया एंड रवांडा जेनोसाइड’ एक उपयोगी दस्तावेज़ है।


22 April 202217 min read

Author: Lenin Maududi

जब मैं अनाथालय में पहुंची तो उससे पहले ही हुतू समुदाय के दंगाई वहाँ पहुंच चुके थे। वह दोनों बहनें बच्चियां थीं। उसकी छोटी बहन को वह लोग पहले ही मार चुके थे। बड़ी बहन दौड़ कर मेरे पास आई और मुझ से लिपट गयी। उसे लगा कि मैं उसे बचा लूंगी। वह ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी कि मुझे बचा लो मैं वादा करती हूं, अब से मैं तुत्सी नही रहूंगी। लेकिन उन्होंने मेरे सामने उसे भी मार दिया और मुझे यह सब देखने को मजबूर किया।

Statement made by UN activist in the movie Hotel Rwanda, who was trying to rescue children from an orphanage during the genocide.

यह दृश्य Terry George की 2004 में आई फ़िल्म Hotel Rwanda (होटल रवांडा) की है। रवांडा अफ्रीका महाद्वीप का एक देश है जिसकी राजधानी किगाली है। यह फ़िल्म 6 अप्रेल 1994 में लगातार 100 दिनों तक चले तुत्सी समुदाय के https://www.facebook.com/100000332902240/posts/3103615792992820/जन-संहार पर आधारित है। इस जन-संहार में 8,00,000 तुत्सी मारे गए थे। इस फ़िल्म में इस वाकये को रेड क्रॉस की एक महिला सुना रही होती हैं। होटल रवांडा (Mille Collines) एक ऐसा होटल था जो विशेषत: विदेशी सैलानियों के लिए बना था। इस होटल के मैनेजर का नाम पॉल रूसेसाबगीना था। यह भी एक हुतू था जो कठिन परिस्थितियों में फंस गया था। जब रवांडा में जन-संहार शुरू हुआ तो इसने बहुत से तुत्सीयों को अपने होटल में छुपा लिया था। यह फ़िल्म उन्ही तुत्सीयों के रूप में मानवता को बचाने की कहानी है। जब UN और दुनियां के सुपर पॉवर इस जन-संहार को रोकने के लिए कुछ नही कर रहे थे तभी उसी वक़्त एक आम इंसान अपनी और अपने परिवार की जान ख़तरे में डाल कर तुत्सी समुदाय के लोगों को बचा रहा था। कहीं पढ़ा था कि

'कोई हीरो पैदा नही होता, परिस्थितियां लोगों को हीरो बनाती हैं'

पॉल रूसेसाबगीना को विषम परिस्थितियों ने मानवता का हीरो बना दिया।

Paul Rusesabagina - The hero who saved many Tutsi lives during genocide

बी.बी.सी. हिंदी अपनी रिपोर्ट 'रवांडा का वो नरसंहार जब 100 दिनों में हुआ था 8 लाख लोगों का क़त्लेआम' में नरसंहार शुरू होने के कारणों के बारे में लिखती है।

इस नरसंहार में हूतू जनजाति से जुड़े चरमपंथियों ने अल्पसंख्यक तुत्सी समुदाय के लोगों और अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया। रवांडा की कुल आबादी में हूतू समुदाय का हिस्सा 85 प्रतिशत है लेकिन लंबे समय से तुत्सी अल्पसंख्यकों का देश पर दबदबा रहा था। साल 1959 में हूतू ने तुत्सी राजतंत्र को उखाड़ फेंका। इसके बाद हज़ारों तुत्सी लोग अपनी जान बचाकर युगांडा समेत दूसरे पड़ोसी मुल्कों में पलायन कर गए। इसके बाद एक निष्कासित तुत्सी समूह ने विद्रोही संगठन रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) बनाया। यह संगठन 1990 के दशक में रवांडा आया और संघर्ष शुरू हुआ। यह लड़ाई 1993 में शांति समझौते के साथ ख़त्म हुई। लेकिन छह अप्रैल 1994 की रात तत्कालीन राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरुंडी के राष्ट्रपति केपरियल नतारयामिरा को ले जा रहे विमान को किगाली (रवांडा) में मार गिराया गया था। इसमें सवार सभी लोग मारे गए। किसने यह जहाज़ गिराया था, इसका फ़ैसला अब तक नहीं हो पाया है! कुछ लोग इसके लिए हूतू चरमपंथियों को ही ज़िम्मेदार मानते हैं जबकि कुछ लोग रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) को। चूंकि ये दोनों नेता हूतू जनजाति से आते थे और इसलिए इनकी हत्या के लिए हूतू चरमपंथियों ने आरपीएफ़ को ज़िम्मेदार ठहराया। इसके तुरंत बाद हत्याओं का दौर शुरू हो गया।आरपीएफ़ ने आरोप लगाया कि विमान को हूतू चरमपंथियों ने ही मार गिराया ताकि नरसंहार का बहाना मिल सके।

हम यह देखते हैं कि जहां जहां बड़े नरसंहार हुए हैं वहां-वहां ऐसे ही बड़े बहाने को गढ़ा गया है। इस बात को ऐसे समझें कल्पना करें भारत के किसी प्रसिद्ध नेता को उसी के धर्म का कोई व्यक्ति मार देता है तो हेडिंग बनेगी अमुक व्यक्ति ने जनवादी नेता जी की हत्या कर दीअब मारने वाला अलग धर्म का हुआ तो? अब व्यक्ति नहीं समुदाय आरोपी बनेगा। 1984 में क्या हुआ था? अभी हालफिलहाल की घटनाओं पर नज़र डालें। जिन इलाकों में पुलिस और डॉक्टर को मारा जा रहा है अगर वह इलाके हिन्दू हुए तो बात उस इलाके तक सीमित हो जाएगी और अगर मुस्लिम हुए तो मीडिया पूरे मुस्लिम समाज को आरोपी बनाएगी। इससे एक बड़ा नुकसान यह भी होता है कि धार्मिक सत्ता की आवाज़ें ज़्यादा मज़बूत हो जाती हैं और समुदाय की लिबरल आवाज़ें दब जाती हैं

रवांडा नरसंहार में मासूम बच्चों को यह कह कर मारा जा रहा था कि

'हम तुत्सीयों की नस्ल खत्म करना चाहते हैं।'

सोचिए इतनी नफ़रत उनके अंदर कहाँ से आई कि एक मासूम बच्ची भी उन्हें सिर्फ़ तुत्सी नज़र आई? कैसे आपकी एक पहचान इतनी प्रभावशाली हो जाती है कि उसकी वजह से आप इतने हिंसक और क्रूर हो जाते हैं कि एक मासूम का क़त्ल करने से भी नहीं झिझकते? अमर्त्य सेन अपनी किताब 'Identity and Violence' में लिखते हैं

सामान्य लोगों पर विशेष पहचान थोप दी जाती है ताकि दोस्त को दुश्मन बनाया जा सके। 1940 में हिन्दू और मुसलमान भारतीय नहीं रहे। उनकी भारतीय पहचान, हिन्दू-मुसलमान की पहचान से छोटी  हो गयी।

आप को हत्यारा बनाने के लिए आपकी कौन सी पहचान को ज़्यादा महत्व देना है, इसका निर्धारण आप नही करते! यह धार्मिक, राजनीति, सामाजिक सत्ता में बैठे हुए लोग तय करते हैं। उदाहरण के रूप में समझें, हिन्दू-मुसलमान के संघर्ष में मैं मुसलमान बन जाता हूं फिर मुसलमानों के अंदर सुन्नी जो शिया से अलग हैं, फिर सुन्नी के अंदर हनफ़ी जो अहले हदीस (वहाबियों) से अलग हैं, फिर हनफ़ी के अंदर अहले सुन्नत वल जमात (बरेलवी) जो देवबंदियों से अलग हैं। इन श्रेणियों का निर्माण संघर्ष से पहले होता है। आपको किसी ख़ास सांचे में डाल दिया जाता है और बताया जाता है कि आप ही सही हैं दूसरा पूरी तरह गलत। जैसाकि ज्यां पाल सात्रे लिखते हैं

यहूदी आदमी होता है जिसे दूसरे लोग यहूदी के रूप में देखते हैं। यहूदी विरोधी लोग यहूदियों की पहचान आम मनुष्यों से अलग बनाते हैं।

इसी तरह हम तुत्सी, रोहिंग्या, वीगर (चीनी मुसलमान) आदि के बारे में भी कह सकते हैं।

इस श्रेणीक्रम के निर्माण के बाद यह ज़रूरी हो जाता है कि व्यक्ति को उस के लिए तय की गई श्रेणी में रहने को मजबूर किया जाए। समुदायों की लेबलिंग की जाती है। उनको अमानवीय घोषित किया जाता है। फिर उनको हाशिए पर ढकेलने की कोशिश होती है। अमर्त्य सेन लिखते हैं

'हम अपने आपको किस रूप में देखें! अपनी व्यक्तिगत पचानों को व्यक्त करने की हमारी स्वतंत्रता कई दफ़ा इसी तथ्य पर निर्भर करती है कि दूसरे हमें किस रूप में देखते हैं। कई दफ़ा तो हम यह भी नही जान पाते कि दूसरे हमें किस रूप में देखते हैं और वह अपने बारे में हमारे स्वयं के दृष्टिकोण से कितना भिन्न है।'

तुत्सीयों को हुतू से अलग करने के लिए दोनों के दिमागों को श्रेणियों में बांटना ज़रूरी होता है ताकि उनकी आत्मीयता उनके अपने समुदाय के प्रति हो। रवांडा में ये काम पत्र-पत्रिका (कंगूरा) के साथ विशेष तौर से रवांडा रेडियों ने किया जिसका नाम, 'आरटीएलएम' था। रवांडा के लोग अशिक्षित थे तो रेडियों उनके लिए संचार का सबसे बड़ा माध्यम था। रेडियों पर गाने, सरकार की योजना के साथ नफ़रत परोसी जाती थी ताकि लोग सूचना और मनोरंजन के लिए रेडियो सुने और इसी तरह उनके दिमाग को हिंसक बनाया जा सके। रेडियो रवांडा ने लोगों से आह्वान किया कि, 'तिलचट्टों को साफ़ करो (kill the cockroaches)' मतलब तुत्सी लोगों को मारो। लोगों को बार-बार इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वह अपने पड़ोसियों की हत्या करें।

The Process of Genocide - Image taken from Radiolemberg.com

'होटल रवांडा' फ़िल्म इसी रेडियों की आवाज़ से शुरू होती है। रेडियों हुतू समुदाय की भावनाओं को भड़काने के लिए झूठा प्रोपोगेंडा चलाते हैं। उनसे कहा जाता है कि तुत्सी राजतन्त्र कायम करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें हुतू लोगों को गुलाम बनाकर रखा जाएगा। इन रेडियों स्टेशनों ने हुतू और तुत्सी समुदाय के बीच किसी भी बातचीत या शांति समझौते का खुलकर विरोध किया, शांति के प्रयासों के खिलाफ अभियान चलाया, हुतू मिलिशिया समूहों का समर्थन किया। इस सन्दर्भ में एलिन थॉम्पसन द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘द मीडिया एंड रवांडा जेनोसाइड’ एक उपयोगी दस्तावेज़ है। इसमे बताया गया है कि कैसे धीरे-धीरे बहुसंख्यकों (हुतू) के दिल में अल्पसंख्यक (तुत्सीयों) के लिए नफ़रत भरी गई। यह एक दिन में नहीं हुआ। मीडिया ने बहुसंख्यकों के पूर्वाग्रहों को बल दिया जो तुत्सीयों के ख़िलाफ़ था। इतिहास में इन दोनों समुदायों के बीच पहले भी संघर्ष हुए थे। उन संघर्षो को आधार बनाया गया। जन-संहार से पहले ही सैकड़ो तुत्सीयों को Lynch कर दिया गया था। मीडिया ने इन Lynch करने वालों को हीरो बना दिया था। तुत्सीयों को शैतान बताया गया। तुत्सी औरतों को हुतू मर्दों को प्रेम जाल में फंसाने वाली औरतों के रूप में प्रचारित किया गया। उसके बाद जो हुतू तुत्सीयों के पक्ष में थे उनके ख़िलाफ़ भी इसी तरह का प्रोपोगेंडा चलाया गया। उनको गद्दार, देशद्रोही बोला गया। कोशिश की गई कि कैसे भी इन सेक्यूलर हुतुओं की बातों का असर हुतू समाज पर न पड़े। अंत मे इस प्रोपोगेंडा का असर हुआ। हूतू समुदाय से जुड़े लोगों ने अपने तुत्सी समुदाय के पड़ोसियों और रिश्तेदारों को मार डाला।यही नहीं, कुछ हूतू युवाओं ने अपनी पत्नियों को सिर्फ़ इसलिए मार डाला क्योंकि अगर वो ऐसा न करते तो उन्हें जान से मार दिया जाता। उन्होंने तुत्सीयों की औरतों को सेक्स स्लेव बना दिया। तुत्सी महिलाओं को मारने से पहले उनके साथ सामुहिक बलात्कार किए गए। मीडिया ने देखते ही देखते पूरे हुतू समुदाय को हत्यारा-बलात्कारी बना दिया। रेडियों से लगातार तुत्सी लोगों को मारने की लिस्ट जारी की जाती और फिर हुतू उन्हें मार देते। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने पहले इसे आंतरिक मामला बताया फिर नस्लीय संघर्ष बोला। जब मामला हाथ से निकल गया तब जा कर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इसे जन-संहार की उपमा दी।

अमर्त्य सेन लिखते हैं कि

पहले मनुष्य के विचार हिंसक होते हैं फिर हिंसा व्यवहार में आती है।

हम सोशल मीडिया पर नफ़रत फैलाने वाली पोस्ट को मिलने वाले लाइक देख कर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किसी का घर जलाने या किसी को Lyunch करने के लिए भीड़ कहाँ से इकट्ठा होती है। आप भारत का ही उदाहरण लें, भारतीय मीडिया 273 न्यूज चैनलों और 82000 अखबारों के साथ तकरीबन 70-80 हजार करोड़ का उद्योग है। लेकिन विश्व रैंकिंग में इसका स्थान 130 के ऊपर (अफगानिस्तान से भी बदतर) है तो सवाल उठता है कि उसकी ऐसी दुर्दशा क्यों है? जब आप गौर से भारतीय मीडिया की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि वह अब ख़ुद बाज़ार है। वह उन वर्चस्व की शक्तियों के साथ खड़ा है या यूँ कहें, उन का ही हिस्सा है, जिन के ख़िलाफ़ इस चौथे खंबे को खड़ा होना था। भारतीय मीडिया ने अपना पक्ष चुन लिया है। न्यूज़ चैनल खोलने के लिए जो मापदंड हैं उनके अनुसार भारत में आपको 24 घंटे में सिर्फ दो घंटे न्यूज चलाना जरूरी है बाकि आप ग़लाज़त परोसते रहिए, कोई रोकने वाला नहीं। भारतीय मीडिया लगातार बहुसंख्यकों के दिल में नफ़रत भर रहा है।

भारत मे घटित किसी भी समस्या में 'मुसलमान' एंगल खोजना इनकी विशेषता बन चुकी है। गोहत्या-लव जेहाद-मंदिर/मस्जिद जैसे मामलों में अफवाहों पर आधारित रिपोर्टिंग की जाती है। जहां हर बार मुसलमान 'विलेन' होता है। अभी बहुत दिन नहीं बीते जब मीडिया 'कासगंज' को कश्मीर बता कर बहुसंख्यकों को उत्तेजित कर रही थी। बताया जा रहा था की कासगंज में 'इस्लामी हुकूमत' (तालिबानी हुकूमत) लाने का प्लान है जैसे कश्मीर से ब्राह्मण निकाले गए वैसे ही यहाँ से हिन्दू निकाले जा रहे हैं। अयोध्या का निर्णय आने से पहले ही मंदिर निर्माण के ऊपर कार्यक्रम चल रहे थे। जिसमें हेडिंग थी

'जन्मभूमि हमारी, राम हमारे, मस्जिद वाले कहाँ से पधारे?

Heading of some news-channels coverage before Ayodhya Dispute verdict

ख़ुशबू चौहान जब अपने भाषण में कोख न पलने देने की बात कहती हैं और कन्हैया की छाती पर तिरंगा गाड़ने की बात कहती हैं तो भारतीय मीडिया उसका महिमामण्डन करती है। इंडिया टीवी हेडिंग लगाती है

“टुकड़े-टुकड़े गैंग पर बहादुर बिटिया का प्रहार!”

सरकार के विरुद्ध हर विरोध प्रदर्शन को 'देशद्रोही' करार दे दिया जाता है ताकि बहुसंख्यक हिंदुओं को यह समझाया जा सके कि जो विरोध हो रहा है वह विदेशी पैसों से हो रहा है। लोगों को विरोध के मूल कारणों तक पहुंचने नहीं दिया जाता है। उससे पहले ही पूरे विरोध को हिन्दू-मुसलमान बना दिया जाता है। अभी हाल में तब्लीग़ी जमात के मरकज़ में कोरोना संक्रमित के मिलने के बाद मीडिया लगातार इस बात को प्रचारित कर रही है कि ‘भारत के मुसलमान तो जानबूझकर कोरोनो वायरस फैला रहे हैं’

इसका परिणाम भी दिख रहा है, मुस्लिम रेहड़ी वालों के पिटाई के वीडियो सामने आ रही हैं। जगह-जगह तनाव बढ़ रहा है। मुसलमानों के प्रति अविश्वास अपने चरम पर है। आप देखते होंगे कि कैसे पैसे के बदले बाबाओं को समय दिया जाता है अंधविश्वास फैलाने के लिए। टी.वी. डिबेट में कोई मुस्लिम पहचान का व्यक्ति बैठा होता है जिसे एंकर पूरे मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि के रूप में पेश करता है। फिर एंकर उसपर चिल्लाता है गर्जता है। जिसे देख कर दर्शकों की कुंठाएं शांत होती है और एंकर की TRP बढ़ती है। मीडिया मालिक पेड न्यूज़ और फेक न्यूज़ को बंद नहीं करना चाहते क्योंकि यह उनके लिए आमदनी का ज़रिया है। जिस टीआरपी का हवाला दिया जाता है, यह बताने के लिए कि जनता यही देखना चाहती है, उसका संबंध दर्शक से नहीं, बाजार से है और जो टीआरपी है वह 70 फीसद शहरों पर आधारित है क्योंकि ‘बीएआरसी’ ने रेटिंग मशीनें अधिकतर शहरों में ही लगाई हैं जबकि भारत गांव का देश है और यहां 65-70 फीसद आबादी गांवों में रहती है। इसलिए आप देखते होंगे कि कोई बीमारी या संकट जब तक शहर के कुलीन वर्गों को नहीं छूता तब तक वह संकट ही नहीं होता। जब तक शहरों को पानी की कमी नहीं हुई तब तक मीडिया के लिए सूखा नहीं होता। अब बात TRP से आगे निकल चुकी है । एंकरों ने अपना पक्ष चुन लिया है। उन्हें पता है उन्हें क्या करना है। अगर कोई पत्रकार हिम्मत भी करना चाहता है तो नहीं कर पता क्योंकि पत्रकार ख़ुद हाशिये पर हैं, उनकी नौकरी में कोई स्थायित्व नहीं। अभिसार शर्मा, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अरफ़ा ख़ानम जैसे चर्चित नाम ज्वलन्त उदाहरण हैं इस बात के। बाकी वह पत्रकार जो मुख्यधारा की नफ़रत फैलाने वाली लाइन से अलग हट कर बात करते हैं, उन्हें बाक़ी के दरबारी पत्रकार ही देशद्रोही घोषित कर देते हैं ताकि इन पत्रकारों द्वारा उठाए गए प्रश्न निष्प्रभावी हो जाएं।

Analysis of Hate editorial published in Star of Mysore - A Hyderabad Evening Daily

होटेल रवांड़ा फ़िल्म में पॉल रूसेसाबगीना यह मानने को तैयार ही नही होता है कि मीडिया द्वारा फैलाई जा रही हिंसा कभी इतनी भयानक होगी। जब उसके दोस्त और ड्राइवर उससे पूछता है कि 'क्या उन्हें रवांडा छोड़ देना चाहिए ?' तो पॉल रूसेसाबगीना जवाब देता है कि

मैं मानता हूं कि तुत्सीयों पर अत्याचार हो रहा है पर हालात इतने भी खराब नही हैं

उसे लगता है कि वह बड़े-बड़े लोगों से मिल रहा है। अगर कोई मुसीबत आती है तो वे लोग उसे बचा लेंगे। पर जब जन-संहार शुरू होता है तब वह अपने को असहाय महसूस करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बिलकलिंटन अपने 257 नागरिकों को निकालने के लिए सेना भेजते हैं। उन नागरिकों के साथ आए कुत्तों को भी बचा लिया जाता है पर रवांडा के तुत्सीयों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। UN ने अपने सैनिकों को गोली न चलाने के आदेश दिए थे । बेल्जियम की सेना भी मूक दर्शक बनी खड़ी रही। फ़िल्म में UN शांति सेना के जनरल डलायर पॉल रूसेसाबगीना से कहते हैं कि

'तुम लोग इन गोरों के लिए कुछ नहीं हो, एक वोट भी नहीं। तुम्हारी जान की परवाह वह सब क्यों करें? तुम उनके लिए बस एक गन्दे काले इंसान हो!

जब UN की गाड़ियां गोरो को ले कर चलती हैं तो न जाने कैसे इन गोरों ने सड़क के किनारे खड़े तुत्सीयों की आशा भरी नम आँखों से आँखे मिलाई होगी! जब अमेरिकी-UN सेना चर्च में छुपे हज़ारों लोगों के बीच पहुंचती है तो लोग खुशी से नाचने लगते हैं फिर तभी उन्हें पता चलता है कि उनके गोरे पादरी और नन को ही बचाने का आदेश है। ऐसा अमानवीय व्यवहार इन सैनिकों के अंदर कहाँ से आया होगा! क्या हुतू क़ातिलों और इन शांति सेना में फ़र्क़ किया जा सकता है! जो अमेरिका मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर कई देशों को तबाह कर चुका है, वह भी पूरी दुनियां के साथ 100 दिनों तक यह जन-संहार देखता रहा। उसने पहल नहीं की क्योंकि ऐसी ही परिस्थितियों में सोमालिया में उसके कुछ सैनिक मारे गए थे। हम यह देखते हैं कि जब तक इन (पश्चिमी) देशों के निजी हित नहीं होते तब तक यह किसी भी देश की मदद नहीं करते। फ़िल्म में पॉल रूसेसाबगीना जब हत्यारे सैनिकों से घिर जाता है तब वह अपने होटल के मालिक को फ़ोन करता है। बेल्जियम में बैठा उसका मालिक पूछता है कि उसे बचाने के लिए किसे फ़ोन करूँ? पॉल रूसेसाबगीना जवाब देता है कि फ्रांस को क्योंकि तुत्सीयों को मारने के लिए हथियार वही दे रहे हैं। पश्चिमी देशों का एक मात्र लक्ष्य मुनाफ़ा कमाना है। इन्हें सिर्फ़ हथियार बेचने से मतलब है। अगर दुनिया मे शांति स्थापित हो जाए तो फिर इनका हथियार कौन खरीदेगा? क्या ज़्यादा बड़ा सवाल यह नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान से लेकर इराक़ तक जितने आतंकवादी संगठन हैं उनके पास कभी न ख़त्म होने वाली अत्याधुनिक हथियारों की निर्बाध सप्लाई कहां से हो रही है? किस देश में यह हथियार बन रहे हैं? कैसे यह आधुनिक हथियार इन दुर्गम स्थानों तक पहुंच रहे हैं? आखिर संयुक्त राष्ट्र इन आतंकवादी संगठनों के हथियारों की सप्लाई रोक क्यों नहीं पा रहा?

इस नरसंहार के बाद क्या हुआ? बी.बी.सी. हिंदी के अनुसार युगांडा सेना समर्थित, आरपीएफ़ सुव्यवस्थित होकर अपने लोगों को बचाने रवांडा लौटी और धीरे-धीरे अधिक से अधिक इलाक़ों पर कब्ज़ा कर लिया। 4 जुलाई 1994 को इसके लड़ाके राजधानी किगाली में प्रवेश कर गए। उसके बाद 15 जुलाई को यह सब ख़त्म हुआ। कई रिपोर्ट्स के अनुसार बदले की कार्रवाई में आरपीएफ़ ने भी लाखों हूतू लोगों की हत्या की। 20 लाख हूतू, जिसमें वहां की जनता और हत्याओं में शामिल लोग भी थे, पड़ोस के डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो में पलायन कर गए। कुछ लोग तंज़ानिया और बुरुंडी भी चले गए। हूतुओं ने छोटे-छोटे लड़ाके समूह बनाए। 2003 तक हत्याओं के दौर जारी रहा जिसमें 50 लाख लोग मारे गए। रवांडा नरसंहार के दोषियों को सज़ा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने तंज़ानिया में एक इंटरनेशनल क्रिमिलन ट्रिब्यूनल बनाया। कुल 93 लोगों को दोषी ठहराया गया और पूर्व सरकारों के दर्जनों हूतू अधिकारियों को भी सज़ा दी गई। मीडिया पर भी जन-संहार का आरोप लगा उन्हें भी आजीवन कैद की सज़ा सुनाई गई। पर क्या तुत्सी हत्यारों को सज़ा मिली ? हुतू नरसंहार के लिए आरोपी थे तो क्या तुत्सीयों पर भी उसी तरह हूतुओं की हत्याओं का आरोप नहीं लगना चाहिए? मीडिया के अंतरराष्ट्रीय मानक का अनुपालन कराने के लिए क्या क़दम उठाया जा रहा है? मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के उपाय कहाँ तक कारगर हो रहे हैं? क्रॉस मीडिया स्वामित्व के सवाल को कैसे हल किया जाएगा ? न्याय के अभाव में आक्रोश पैदा होता है। जिसका अंत एक बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आता है। हमें समाज मे न्याय और मानवाधिकार को सुनिश्चित करना ज़रूरी है।मनुष्य के रूप में हमारी सबसे बड़ी पहचान ही हिंसा को रोक सकती है। अमर्त्य सेन अपनी किताब 'Identity and Voilance' में लिखते हैं कि

'किसी हुतू मज़दूर पर यह दबाव बनाकर कि वह केवल हुतू है, तुत्सीयों की हत्या के लिए रवाना किया जा सकता है परन्तु सच्चाई यह होगी कि वह केवल हुतू नहीं है। वह किगाली भी है, रवांडा भी है, अफ्रीकी भी है, मज़दूर भी है और मनुष्य भी है। इस प्रकार मनुष्य की अनेक पहचानों को स्वीकार किया जाना आवश्यक है। साथ ही यह भी बहुत आवश्यक है कि वह अपनी इन विविध पहचानों में से सही पहचान के चुनाव की योग्यता तथा क्षमता हासिल करें।

Trailer of the Film - Hotel Rwanda


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