मौलाना अशरफ़ अली थानवी का अशराफ़ चरित्र: पार्ट-1 साम्प्रदायिकता

मौलाना अशरफ अली थानवी हनफ़ी फ़िक़्ह के देवबंदी शाखा के सबसे बड़े उलेमा में से एक हैं। मौलाना न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे इस्लामी-दुनिया में अपने इस्लामी-ज्ञान के विद्वाता के कारण एक विशिष्ट स्थान रखते हैं लेकिन उनका धुर साम्प्रदायिक, द्विराष्ट्र-सिद्धान्त का समर्थक, गाँधी विरोध, भाईचारा एवं समानता विरोध, पसमांदा विरोध आदि विचारो से स्पष्ट होता है कि वो अशराफ चरित्र के वाहक थे।


26 April 20227 min read

Author: Faizi

अशरफ अली थानवी का अशराफ चरित्र यहाँ अशराफ उलेमा के चरित्र के प्रतिनिधि के रूप में भी वर्णित किया गया है लगभग तमामतर अशराफ उलेमा चाहे वो किसी मसलक/फ़िर्के के संस्थापक या मानने वाले हों ऐसे ही चरित्र के वाहक हैं। यह लेख मौलाना अशरफ़ अली थानवी के सामाजिक-राजनैतिक-शैक्षिणिक-धार्मिक आदि विचारों का एक विस्तृत वर्णन है। जिसे तीन क़िस्तों में प्रकाशित किया जाएगा यह इस श्रृंखला का पहला लेख है।

मौलाना अशरफ़ अली थानवी हनफ़ी फ़िक़्ह के देवबंदी शाखा के सबसे बड़े उलेमाओं में से एक हैं। मौलाना न सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरे इस्लामी-दुनिया में अपने इस्लामी-ज्ञान के विद्वता के कारण एक विशिष्ट स्थान रखते हैं लेकिन उन का धुर साम्प्रदायिक, द्विराष्ट्र-सिद्धान्त (दो क़ौमी नज़रिया) का समर्थन, गाँधी विरोध, भाईचारा, समानता एवं पसमांदा विरोध आदि विचारों से स्पष्ट होता है कि वो अशराफ़ चरित्र के वाहक थे।

धुर साम्प्रदायिक

प्रो० अहमद सईद अहमद अपनी किताब 'मौलना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी' में लिखते हैं

मौलाना थानवी के निकट हिन्दू, मुसलमानों के अव्वल दर्जे के दुश्मन थे। एक जगह कहते हैं कि यह क़ौम निहायत एहसान फ़रामोश है….बड़े बड़े नवाब और रईस इन की मुख़बिरी के कारण फाँसी पर चढ़ा दिए गए।

हिंदुओं की क़ौम आली हौसला (उच्च साहस वाली) नहीं, उन के वादे, वचन का भरोसा नहीं।(पेज न० 31)

उन का मानना था कि हिन्दू अंग्रेज़ों से ज़्यादा इस्लाम और मुसलमानों के दुश्मन हैं। हिन्दु भाईयों को कालानाग से उपमा देते थे जो अंग्रेज़ों (सफ़ेद नाग) से ज़्यादा ज़हरीले हैं। (पेज न०32)

हिन्दुओं को मुसलमानों के ईमान, जान, माल व जाह (शान) आदि सब चीज़ों का दुश्मन मानते थे। (पेज न० 33)

मौलाना हिन्दुओं को बुज़दिल (डरपोक), ख़ुदग़र्ज़ (स्वार्थी) और कम-हौसला (कम साहसी) क़ौम के नाम से याद करते थे। हिन्दुओं की बहादुरी को बन्दर भभकी की उपमा से याद करते थे। (पेज न०34)

उन की मलफ़ूज़ात (सभाओं में कही गयी बातों का पुस्तकीय रूप) में एक जगह लिखा है कि,

इसी सिलसिले में फ़रमाते हैं कि हिन्दु हरगिज़ अंग्रेज़ों को भारत से निकालना नहीं चाहते हैं, उन का लाभ अंग्रेज़ों के रहने में ही है। उन की इच्छा तो यह है कि अंग्रेज़ों की देखरेख और रक्षा में दफ़्तरी और कानूनी शक्ति प्राप्त करके शासन करें। पेज न० 189, मलफ़ूज़ात भाग-25

द्वि राष्ट्र सिद्धान्त का समर्थन

यह सर्वविदित तथ्य है कि द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम  https://satyagrah.scroll.in/article/121318/syed-ahmad-khan-amu-profile सर सैयद ने किया था, जिसे अल्लामा इक़बाल और अशरफ़ अली थानवी ने इस्लामी रंग दिया। मौलाना थानवी द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त (पाकिस्तान) के प्रबल समर्थक थे।

1928 ई० में ही उन्होंने विभाजन की वकालत की थी। मुस्लिम लीग के अधिवेशन में इन के सन्देश पढ़ कर सुनाए जाते थे (पेज 48,49,50, क़ासिम ) फिर भी सन्दर्भ के लिए निम्नलिखित तथ्यों को नक़ल कर दिया गया है

मेरी हार्दिक इच्छा और प्रार्थना है कि अल्लाह त'अला हुकूमत-ए-आदिला मुस्लिमा (न्यायप्रिय मुस्लिम शासन) स्थापित फ़रमाए और मैं इस को अपने आंखों से देखूँ।(पेज न० 151, मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी

मौलाना इस क़दर मुस्लिम लीग के समर्थक थे कि अपने धार्मिक प्रभाव का प्रयोग करते हुए झाँसी के इलेक्शन( 1937 ई०) में 'तार' भेज कर मुस्लिम लीग के उम्मीद्वार को वोट देने की अपील किया, जो जीत भी गया। (पेज न० 127, मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी)

अपने दामाद को एक बार सम्बोधित करते हुए कहते हैं….मुझे तुम्हारे ख़यालात का इल्म (ज्ञान) हुआ, घबराने की कोई बात नहीं, मुझे बहुत से मज्ज़ूबों (सूफ़ियों) ने बतलाया है कि इस्लामी सल्तनत 1947 में क़ायम (स्थापित) हो जाएगी। यह बात 1938 ई० की है। (पेज न०156, मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीके आज़ादी)

मुस्लिम लीग और जिन्ना के प्रबल समर्थक होने के कारण कवि ने उनपर व्यंग करते हुए कहा कि.

समझ लूँ मैं जिन्ना को क्यों कर मुसलमाँ

कोई मैं भी अशरफ़ अली थानवी हूँ!

(1.पेज न० 143-144, बड़ा मौलवी चमनिस्तान, मौलाना ज़फ़र अली खान, मकतबा लाहौर, 1969)

2. पेज न०148, मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी

कांग्रेस विरोध और मुस्लिम लीग समर्थन

यह सर्वविदित तथ्य है कि मौलाना कांग्रेस के धुर विरोधी और मुस्लिम लीग के प्रबल समर्थक थे।

मौलाना थानवी ने कांग्रेस में मुसलमानों के सम्मिलित होने को नाजायज़ (इस्लामी-विधि के विरुद्ध) और उस के लिए काम करने को अहल-ए-इस्लाम (इस्लाम के मानने वालों) के लिए हानिकारक बताया।

(पेज न० 86, मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी)

एक सभा में कहते हैं कि…

मुसलमानों विशेष रूप से उलेमा (मौलानाओं) का काँग्रेस में शामिल होना न सिर्फ़ धार्मिक रूप से जानलेवा है बल्कि कांग्रेस से बेज़ारी (नफ़रत) का ऐलान कर देना बहुत ज़रूरी है।

(पेज न० 88, मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी)

एक अन्य सभा में कहतें हैं कि...

कांग्रेस में ऐसे लोग जिन को अवाम (जनता) उलेमा कहती है, दो तरह के हैं। एक तो वह हैं जो भाषण और लेख लिखने के कारण समाज के विशेष दर्ज़े में मशहूर हैं मगर शरीयत (इस्लामी विधि) के आलिम (इस्लाम का ज्ञानी) नही हैं। चूंकि यह लोग आलिम (मौलवी) नहीं हैं इस लिए इन से मसायल (धार्मिक समस्याएं) आदि के बारे में ज़्यादा शिकायत भी नहीं की जा सकती। दूसरे तरह के वह लोग हैं जो वाक़ई में पढ़े-लिखे और विधिवत मौलवी हैं मगर कांग्रेस पर न्योछावर हो कर इस्लामी-विधि की सीमा से आगे बढ़ गए हैं। अंग्रेज़ों से दुश्मनी के कारण कांग्रेस के साथ हिम्मत और शान से दोस्ती करते हैं और सीमाओं और प्रतिबन्धों का भी ध्यान नहीं रखते हालांकि हदीस शरीफ़ में है, मुहब्बत और दोस्ती दोनों में बराबरी होनी चाहिए। सम्भव है हालात पलटा खाएं, दोस्त दुश्मन बन जाएं और दुश्मन दोस्त हो जाये। यह दूसरे तरह के लोग साफ़-साफ़ कहते हैं कि अगर अंग्रेज़ भारत से निकल जाएँगे तो सारी दुनिया को सुकून नसीब होगा, इस लिए हम को इस की जी-तोड़ कोशिश करना चाहिए, चाहे भारत और भारतीय मुसलमानों का ईमान (इस्लामी आस्था) बर्बाद ही हो जाये। इसी सिलसिले में फ़रमाया कुछ अहल-ए-इल्म (ज्ञानी) कहतें हैं कि हम इसलिए कांग्रेस का साथ देते हैं कि काँग्रेस पर मुसलमानों का क़ब्ज़ा (आधिपत्य) हो जाये, अगर सच में यही उद्देश्य है तो यह मुस्लिम लीग में ज़्यादा आसानी से हो जाएगा, क्योंकि मुस्लिम लीग वाले आज्ञाकारी होने के लिए तैयार हैं।चुनांचे लीग के बड़े-बड़े सदस्यों ने मुझे लिखा है कि हम उलेमा हज़रात (सम्मानित इस्लामी विद्ववानों) के आज्ञाकारी होने के लिए तैयार हैं। और कांग्रेसी तो ख़ुद अपना आज्ञाकारी बनाने की कोशिश करते हैं, उन पर आधिपत्य जमाना कठिन है। अब तो यही सूरत है कि लीग में सम्मिलित होकर इस को अपने आधिपत्य में लाएं और नाकारा लोगों को निकाल बाहर करें। (पेज न० 188-189, मलफूज़ात भाग-25)

गाँधी जी के बारे में विचार

मौलाना थानवी की गाँधी जी के बारे में बहुत अच्छी राय नही थी।

मौलाना थानवी ने गाँधी जी के सम्बंध में तागूत (गुमराहों/पथभ्रष्टों का सरदार), दज्जाल*, शैतान, मक्कार, इस्लाम का शत्रु और बदफ़हम (बुरी समझ वाला) आदि शब्दों का प्रयोग किया है।

(1.पेज न० 35, मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी 2.पेज 40 ,49 मुहम्मद क़ासिम ज़मान )

एक साहब के सवाल के जवाब में फ़रमाया कि गाँधी कमबख़्त कम भाग्य वाला/अभागा) भी दज्जाल से नहीं कम नही, ना मालूम कितने लोगों के ईमान (इस्लामी आस्था) बर्बाद किये और दज्जाल ही क्या करेगा वह भी यही करेगा

(मलफूज़ 368, पेज न० 232, मलफूज़ात भाग -3)

*झूठा, इस्लामी मान्यता के अनुसार एक झूठा आदमी जो संसार के अन्तिम समय में अवतरित होगा और पूरी दुनिया मे तबाही मचायेगा, जिसका वध ईसा मसीह करेंगें।

सन्दर्भ

मलफूज़ात हकीम-उल-उम्मत, जमा करदा, मुफ़्ती मोहम्मद हसन अमृतसरी, इदारा तालिफ़ात-ए-अशरफ़िया चौक फव्वारा, सलामत प्रेस मुल्तान,पाकिस्तान।

ईमेल: taleefat@mul.wol.net.pk

taleefat@शरmul.wol.net.pk

फ़ोन न० 540513-519240

मौलाना अशरफ़ अली थानवी और तहरीक-ए-आज़ादी, प्रो०अहमद सईद, मजलिस-के-सियान्तुल मुस्लिमीन नफ़ीस,नफीस प्रिंटिंग प्रेस लाहौर, 1984



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