आजकल यह एक नया फित्ना (गुमराही, फसाद, बग़ावत) शुरू हुआ है कि शर्फ़ नसब (जातीय बड़प्पन) को ही अस्वीकार करने लगे, कहते हैं यह कोई चीज़ नही लेकिन इसके ख्वास (विशेष/विशेषताएँ) और आसार (प्रभावों) अक्सर कुल्ली (पूरी तरह) नही तो अक्सरी (अधिकतर) तो ज़रूर है और अनुभव में है। और एक बात अजीब है कि यह लोग एक तरफ तो कहते हैं कि हसब नसब कोई चीज़ नही, दूसरी तरफ अपने लिए इसकी कोशिश है, अगर यह कोई चीज़ ही नही तो, तुम जो हो वही रहो, दूसरी तरफ क्यों लपकते और दौड़ते हो, वर्ना जो ऐतेराज़ (आलोचना) तुम हम (अशराफ पर) पर करते हो वोही तुम (पसमांदा पर) पर होगा, क्योंकि उनमें भी कोई अपने को सिद्दीकी (अशराफ टाइटल, पसमांदा चुड़िहारा भी ये टाइटल यूज़ करते हैं) साबित करना चाहता है, कोई अन्सारी (अशराफ टाइटल, जिसे पसमांदा कोरी/जुलाहों ने अपनी टाइटल बना लिया और आज अन्सारी मतलब बुनकर/कोरी की होता है, किन्तु आज भी बहुत से अशराफ अन्सारी टाइटल यूज़ करते हैं), कोई कुरैशी (अशराफ टाइटल जिसे पसमांदा कसाई ने अपना लिया, किन्तु आज भी बहुत से अशराफ यूज़ करते हैं), कोई फारूकी (पसमांदा हलवाई ने अपना लिया, लेकिन अशराफ टाइटल के रूप से ज़्यादा मशहूर है), कोई ज़ुबैरी, कोई अल्वी (पसमांदा फ़क़ीर जाति ने अपना लिया, लेकिन अशराफ टाइटल के रूप में ज़्यादा मशहूर है) साबित करना चाहता है, फिर अपनी आलोचना का जो जवाब तुम चुनोगे वही दूसरी तरफ से समझ लिया जाएगा। एक मौलवी साहब* ने हसब नसब की तहक़ीक़ (रिसर्च/शोध) में एक रिसाला (पत्रिका) भी लिखा है जो शीघ्र ही छप कर तैयार हो जाएगा, रिसाला तो लिख गया मैंने देखा भी है, लेखकों में एक अन्तर तो होता है इल्म (ज्ञान) की कमी-बेशी का और एक होता है जवान-बुज़ुर्ग होने का, तो उनका इल्म (ज्ञान) ताज़ा है एसतेहज़ार (स्मृति, याददाश्त) भी काफी है, अच्छा लिख लेंगे, मगर बुज़ुर्ग-जवान का जो अन्तर है वो बाकी रहेगा यानि उन्वान (ढंग) ज़रा तेज़ है। (जब ठंग की दलील/तर्क नही मिल पाया तो जवान-बुज़ुर्ग का तर्क देकर अपनी खुन्नस निकाला)
Author: Faizi
[अशरफ अली थानवी का अशराफ चरित्र यहाँ अशराफ उलेमा के चरित्र के प्रतिनिधि के रूप में भी वर्णित किया गया है लगभग तमामतर अशराफ उलेमा चाहे वो किसी मसलक/फ़िर्के के संस्थापक या मानने वाले हों ऐसे ही चरित्र के वाहक हैं। यह लेख मौलाना अशरफ़ अली थानवी के सामाजिक-राजनैतिक-शैक्षिणिक-धार्मिक आदि विचारों का एक विस्तृत वर्णन है। जिसे तीन क़िस्तों में प्रकाशित किया गया है यह इस श्रृंखला का तीसरा और अंतिम लेख है।]
आसिम बिहारी और उन के आंदोलन पर राय
जब https://pasmandademocracy.com/biography/faizi/आसिम बिहारी के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का पसमांदा अन्दोलन (जमीयत-उल-मोमिनीन/मोमिन कॉन्फ्रेंस) वजूद में आ गया। जिस ने इस्लाम की पसमांदा व्याख्या करते हुए यह दावा किया कि पसमांदा समाज भी समानता का अधिकार रखता है तो अशराफ़ उलेमा ने इस्लाम की अशराफ़ व्याख्या को फिर से सामने लाकर उस दावे का खण्डन करने का दुःसाहस किया। इसी सिलसिले में मौलाना थानवी कहते हैं..
ख़ुदा मालूम इन नए मुद्दईयों (मुद्दई = दावा करने वाला, विपक्षी) को क्यों इस क़दर जोश है! इधर तो यह है कि अरबी नस्ल बनने को फिरते हैं और उधर कहते हैं हसब (नस्ल, वंशावली, जाति), नसब (वंश) और शराफ़त (बड़प्पन) कोई चीज़ नहीं, अगर कोई चीज़ नहीं तो तुम क्यों पुराने वंश को छोड़ कर नई क़ौम बनाने चले? कहते हैं सब नस्ल-ए-आदम (आदम के वंश से) हैं, ठीक है, फिर क्यों ये कॉन्फ्रेंस हो रही है और क्यों सरगर्दां (आवारा) और बदहवास (हैरान, परेशान) हुए फिरते हो, जो कुछ भी हो घर बैठो! जब हसब-नसब और शराफ़त कोई चीज नहीं, क़ौम कोई चीज़ नहीं, सब नस्ल-ए-आदम हैं तो आख़िर यह नई क़ौम बनाने को क्यों जी (मन) चाहता है? यूँ ही हड़बोंग मचा रखा है, न किसी बात का कोई सर है न पैर विरोधाभाषी बातें करते फिरते हैं और ऊपर से धमकियाँ देते हैं। और यह शोरफ़ा (अशराफ़) तो ख़ामख़ा (अकारण) बदनाम हैं कि ग़रीब क़ौमों को ज़लील (नीच) समझते हैं, उनकी शराफ़त (बड़प्पन) तो पुरानी है, नई और बनावटी नहीं, इस लिये उन को इस के सुबूतों का एहतेमाम (प्रबन्ध) नहीं और शराफ़त नस्बी (जातीय बड़प्पन) तो वह चीज़ है कि जनाब रसूल अल्लाह(स०) ने खुद इस पर फ़ख्र (गर्व) किया है मगर मुसलमानों के मुक़ाबले (प्रतिस्पर्धा) में नहीं कुफ़्फ़ार (काफ़िर का बहुवचन) के मुक़ाबले में, मगर यह तो साबित हुआ कि यह शर्फ़ (बड़प्पन) गर्व करने की चीज़ है। (मलफूज़ात भाग-6, पेज 300)
एक जगह और लिखते हैं...
“नसब (वंश,नस्ल,जाति) पर गर्व नहीं करना चाहिए, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि शर्फ़, नसब (उच्च जाति) कोई चीज़ ही नहीं। देखो आदमी का हसीन-जमील (सुंदर) होना, बदसूरत (कुरूप) या अँधा न होना यद्दपि ग़ैर-इख़्तियारी (अनैच्छिक) है और इस पर गर्व ना करना चाहिए मगर क्या कोई कह सकता है कि सुंदर होना नेअमत (इश्वर की कृपा/उपहार) भी नहीं! यक़ीनन (पूर्ण विश्वास के साथ) आला दर्जे (उच्च स्तर) की नेअमत है। इस तरह यहाँ समझो कि शर्फ़, नसब (उच्च जाति) ग़ैर-इख़्तियारी (अनैच्छिक) क्रिया होने की वजह (कारण) से गर्व करने का कारण नहीं है लेकिन इस के नेअमत (ईश्वरी उपहार) होने में शुब्हा (शंका) नहीं। (अत-तबलीग़ पेज 218 जिल्द 8, पेज 62 इस्लामी शादी)
मौलाना हबीबुर्रहमान आज़मी और उन की किताब पर राय
मुफ़्ती शफ़ी उस्मानी ने इस्लाम की अशराफ़ व्याख्या करते हुए अपनी किताब 'निहायत-उल-अरिब फी गायतुन नसब' में साबित किया कि पसमांदा जातियाँ नीच होती हैं तो इस के जवाब में मौलना हबीबुर्रहमान आज़मी साहब ने अपनी किताब 'अन्साब-ओ-किफ़ा'अत की शरई हैसियत' में इस्लाम की पसमांदा व्याख्या करते हुए बताया कि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है बल्कि इस्लाम एक समतावादी धर्म है। यहाँ यह बात ग़ौर तलब है कि मुफ़्ती शफ़ी उस्मानी की किताब 1930-31 ई० के आस-पास पब्लिश होती है लेकिन आज़मी साहब की किताब लगभग 70 साल के बाद 1999 ई० में पब्लिश होती है। फिर भी मौलना थानवी ने ना सिर्फ मुफ़्ती शफ़ी उस्मानी की किताब के समर्थन में किताब लिखा (डिटेल के लिए देखें प्रो० मौलना मसूद आलम फ़लाही द्वारा लिखित 'हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान', शीर्षक: उलेमा-ए-देवबंद) बल्कि मौलना आज़मी साहब की किताब और उनकी प्रतिष्ठा कम करने में अपना पूरा ज़ोर लगा दिया।
कहते हैं कि जी हाँ, आजकल यह एक नया फित्ना (गुमराही, फसाद, बग़ावत) शुरू हुआ है कि शर्फ़ नसब (जातीय बड़प्पन) को ही अस्वीकार करने लगे, कहते हैं यह कोई चीज़ नही लेकिन इसके ख्वास (विशेष/विशेषताएँ) और आसार (प्रभावों) अक्सर कुल्ली (पूरी तरह) नही तो अक्सरी (अधिकतर) तो ज़रूर है और अनुभव में है। और एक बात अजीब है कि यह लोग एक तरफ तो कहते हैं कि हसब नसब कोई चीज़ नही, दूसरी तरफ अपने लिए इसकी कोशिश है, अगर यह कोई चीज़ ही नही तो, तुम जो हो वही रहो, दूसरी तरफ क्यों लपकते और दौड़ते हो, वर्ना जो ऐतेराज़ (आलोचना) तुम हम (अशराफ पर) पर करते हो वोही तुम (पसमांदा पर) पर होगा, क्योंकि उनमें भी कोई अपने को सिद्दीकी (अशराफ टाइटल, पसमांदा चुड़िहारा भी ये टाइटल यूज़ करते हैं) साबित करना चाहता है, कोई अन्सारी (अशराफ टाइटल, जिसे पसमांदा कोरी/जुलाहों ने अपनी टाइटल बना लिया और आज अन्सारी मतलब बुनकर/कोरी की होता है, किन्तु आज भी बहुत से अशराफ अन्सारी टाइटल यूज़ करते हैं), कोई कुरैशी (अशराफ टाइटल जिसे पसमांदा कसाई ने अपना लिया, किन्तु आज भी बहुत से अशराफ यूज़ करते हैं), कोई फारूकी (पसमांदा हलवाई ने अपना लिया, लेकिन अशराफ टाइटल के रूप से ज़्यादा मशहूर है), कोई ज़ुबैरी, कोई अल्वी (पसमांदा फ़क़ीर जाति ने अपना लिया, लेकिन अशराफ टाइटल के रूप में ज़्यादा मशहूर है) साबित करना चाहता है, फिर अपनी आलोचना का जो जवाब तुम चुनोगे वही दूसरी तरफ से समझ लिया जाएगा। एक मौलवी साहब* ने हसब नसब की तहक़ीक़ (रिसर्च/शोध) में एक रिसाला (पत्रिका) भी लिखा है जो शीघ्र ही छप कर तैयार हो जाएगा, रिसाला तो लिख गया मैंने देखा भी है, लेखकों में एक अन्तर तो होता है इल्म (ज्ञान) की कमी-बेशी का और एक होता है जवान-बुज़ुर्ग होने का, तो उनका इल्म (ज्ञान) ताज़ा है एसतेहज़ार (स्मृति, याददाश्त) भी काफी है, अच्छा लिख लेंगे, मगर बुज़ुर्ग-जवान का जो अन्तर है वो बाकी रहेगा यानि उन्वान (ढंग) ज़रा तेज़ है। (जब ठंग की दलील/तर्क नही मिल पाया तो जवान-बुज़ुर्ग का तर्क देकर अपनी खुन्नस निकाला)
(पेज 120, मलफूज़ात भाग-8)
*इशारा मौलाना हबीबुर-रहमान आज़मी साहब की तरफ है।
अन्साब व किफा'अत की शरई हैसियत
पसमांदा द्वारा खुद को नबियो से जोड़ने पर अशराफ व्याखित इस्लाम में पसमांदा जातियों से सम्बंधित पेशों को नीच, अपमानित कहा गया लेकिन जब पसमांदा जातियों में जागृति आयी तो उसने अपने मान-सम्मान के लिए, इस्लामी इतिहास से अपने पेशे से सम्बंधित नबियो (ईशदूतों) के पेशे को उजागर करते हुए साबित करने की कोशिश किया कि ये काम (पेशे) नीच और अपमानित नही है बल्कि गर्व और फक्र की बात है क्योंकि नबियो ने भी ऐसे काम किये है ऐसे पेशे अपनाए हैं। जिस पर मौलना थानवी अशराफ का पक्ष रखते हुए पसमांदा द्वारा खुद को नबियों से जोड़ने को खारिज करते हुए कह रहें हैं..
फरमाया की कुछ अंबिया (अ० स०) (नबी/ईशदूत का बहुबचन) के बारे में ये जो वारिद (मौजूद) है कि फलाँ काम किया करते थे जैसे दावूद (अ०) ज़िरह (लोहे का जालीदार कवच) बनाया करते थे, और ज़कारिया (अ०) के बारे में यह आया है कि बढ़ई थे, जैसे अक्सर (अधिकतर) अंबिया (अ०) के बारे में आया है कि वो बकरियाँ चराया करते थे, तो इसका यह मतलब नही है कि यह काम उन अंबिया (अ०) के पेशे थे क्योंकि कोई काम करना या इस काम के ज़रिए से ज़रूरत के वक़्त रोज़ी हासिल कर लेना यह और बात है और इस काम का पेशा हो जाना यह और बात है। पेशा तो यह है कि वह आदमी उस काम का दुकान खोलकर बैठ जाय और एलान करें कि जिसको जो फरमाईश करना हो करे मैं पूरा करूँगा और लोग उससे फरमाईश किया करें और वो लोगो की फरमाईश पूरी किया करे, पेशा यह है। बाकी अगर किसी आदमी में कोई हुनर हो और आज़ादी के साथ जब जी चाहे अपने घर बैठ कर वह काम कर लिया करे और उससे माल (रुपया) हासिल कर लिया करे तो यह पेशा नही कहलायेगा। कोई शासक कोई काम जानता है और अपने हाथ से करता है और कभी-कभी इस के ज़रिए रुपये पैसे भी कमा लेता है मगर वह काम उनका पेशा नही हो जाता। सुल्तान अब्दुल हमीद खान लकड़ी का काम बहुत अच्छा जानते थे तो क्या वो बढ़ई हो गए और क्या उनको बढ़ई समझकर कोई आदमी उन शासकों से या सुल्तान अब्दुल हमीद खान से यह कह सकता है कि साहब हमारा यह काम कर दो। इसी तरह हज़रत दाउद (अ०) के बारे में जो यह वारिद है कि वो लोहे का काम जानते थे, तो इसका यह मतलब थोड़े ही है कि कोई आदमी उनके पास अपना खुरपा लेकर पहुँच जाता कि लीजिये ये मेरा खुरपा बना दीजिए और क्या उनका यह इल्तज़ाम (किसी काम को ज़रूरी करार देना) थोड़े ही था कि वह इस फ़रमाईश को ज़रूर ही पूरा करें। यह अन्तर है पेशे में और गैर-पेशे में। तो कई नबियों (अ०) के जो कई ऐसे काम लिखे गए हैं वह बतौर पेशे के नही, हज़रात अंबिया (अ०) का ईश्वर पर भरोसा के अलावा कोई पेशा नही था और कभी कभार अगर किसी ने कोई काम कर लिया तो वह बतौर पेशे के नही किया। जैसे हमारे हुज़ूर (मुहम्मद स०) के बारे में यह वारिद (मौजूद) है कि हुज़ूर (स०) ने कभी-कभी बकरियाँ चराई हैं तो वह बतौर पेशे के नही और वह जो हदीस में क़रारीत का लफ्ज़ आया है उस हदीस से बाउजरत (पैसे लेकर) चराने पर इस्तदलाल (तर्क करना) नही हो सकता जो इस से पेशे को साबित किया जावे, क्योंकि क़रारीत के शब्द के बारे में मतभेद हो गया है कि यह कीरात का बहुबचन है या किसी स्थान का नाम है।
[यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि हदीस में अला क़रारीत (क़रारीत पर) आया है। अगर क़रारीत स्थान के अर्थ में आता तो फी क़रारीत (क़रारीत में) लिखा होता, यहाँ भी मौलाना भ्रमित करने की कोशिश कर रहें हैं]
आजकल के पेशेवर (जातिगत) लोग जो कई अंबिया (अ०) के कामों की अपनी पेशे के सनद (सबूत) में बयान (व्याख्या) करतें हैं यह उनकी गलती है। हज़रात अंबिया (अ०) को तो हक़ ताला (ईश्वर) ने हर ऐसे काम से सुरक्षित रखा है जो सामान्य दृष्टि में सुबकी (नीच, अपमानित, लज्जित, हल्का) का कारण समझा जाता है और स्पष्ट है कि इस तरह के पेशे आमतौर पर सम्मानित नही समझे जाते हैं इसलिए किसी नबी से कोई पेशा साबित नही हुआ ज़बरदस्ती लोग गड़बड़ करते हैं और अपने स्वार्थ और सम्मान के चाह में अम्बिया (अ०) को अपने उद्देश्य के पूर्ति के लिए बार बार इस्तेमाल करते हैं। और यह सम्मान का रोग बहुत ही बुरा रोग है।(पेज 88,89,90, मलफूज़ 67, मलफूज़ात भाग-6)
उपर्युक्त विवरण में मौलाना बड़ी सफाई से पेशागत जातियों के क्लेम का खण्डन करते हैं जो ज़रा सा अक्ल लगाने पर खुल जाता है। हदीस को तोड़-मोड़ कर भ्रमित करने की चेष्टा किया, पेशे को अपमानित, लज्जित और नीच काम बताया है।
हुसैन इब्न मन्सूर के लक़ब का मतलब और पेशा
एक साहब के सवाल के जवाब में फरमाया कि मन्सूर नाम मशहूर हो गया यह इब्न मन्सूर है नाम हुसैन था हल्लाज* लक़ब है उनका यह पेशा न था बल्कि एक करामत के बिना पर यह लक़ब# हो गया मगर इस बिना पर धुनिये (एक पसमांदा जाति) अपने को उनकी तरफ नसबन निस्बत करने लगे यह बिल्कुल गलत है। (पेज-43 मलफूज़-39, मलफूज़ात भाग -3)
*हल्लाज=रुई धुनने वाला
#लक़ब(उपनाम)= वह नाम जो किसी विशेष गुण-दोष के करण पड़ गया हो।
हर मसावात (समानता)महमूद (सराहनीय) नही
एक साहब ने कहा कि हज़रत (मौलाना थानवी), शायद अशराफ का हद से आगे बढ़ना भी इसका कारण हो कि वह कुछ क़ौमों को नीच कहते हैं और इसीलिए वह (नीच क़ौमे) सम्मानित क़ौमों में सम्मिलित होना चाहते हैं। फरमाया (जवाब में) कि:-
पहले तो ऐसा होता था मगर अब तो सम्मान के योग्य लोगो का बहुत सम्मान करतें हैं, किसी क़ौम का कोई आलिम (इस्लामी विद्धवान) हो उसकी सराहना करते हैं अब तो सभ्यता का प्रभाव चढ़ा हुआ है, यह अनुभव में है कि कोई अपमानित या नीच नही समझता है। बाकी यह फ़र्क़ कि बाप को बेटा ऐसे ठंग से सलाम करें कि सलाम के ठंग से मालूम हो जाये कि सलाम करने वाला बेटा है। इसमें कौन सा हर्ज़ (नुकसान) है और कौन सी नीचता है, इसलिए अगर दूसरी क़ौमे आली खानदान (उच्च परिवार) वालो के साथ इस फ़र्क़ का ध्यान रखे तो यह सभ्यता की बात है मगर अब तो मसावात (समानता) का हैज़ा हो गया है इसलिए अगर मसावात का यह अर्थ है जो आजकल बयान किये जाते हैं तो यह खुद सही नही है इसलिए कि आखिर नौकर और आक़ा में तो अन्तर होता ही है, शासक और शासित में अन्तर है। पति और पत्नि में अन्तर है, बाप और बेटे में अन्तर है। क्या विरोध करने वाला इसको खुद अपने लिए पसंद करेगा?
यह तो प्राकृतिक और कुदरती चीज़े हैं इसमें क्या कोई कह सकता है? हर चीज़ की सीमाएं हैं अगर यह ना हो तो संसार की व्यवस्था तहस नहस हो जाएगा। आखिर कहाँ तक मसावात (बराबरी) करोगे, कल कोई कहने लगे कि मुझको नबी न बनाया उनको नबी बनाया, हम भी नबी है, गैर नबी क्यो रहें, क्या जवाब होगा? यह मसावात-मसावात का सबक़ (पाठ) तो याद कर लिया मगर सीमाओं की ख़बर नही, जैसे एक पुराना सबक़ है तरक़्क़ी-तरक़्क़ी, न इसकी सीमाएं न इसके वसूल, हर तरक़्क़ी जैसे सराहनीय नही, उदाहरण स्वरूप किसी बीमारी के कारण किसी के शरीर पर सूजन हो जाये, तो उससे जो तन्दुरुस्ती हुई जो देखने में तरक़्क़ी मालूम होती है लेकिन डॉक्टरों से इसका उपचार करवातें है उल्टा घर से फीस देते हैं, तो मालूम हुआ कि हर तरक़्क़ी सराहनीय नही, ऐसे ही हर मसावात (समानता) भी सराहनीय नही होगी। मतलब अगर गरीब खानदान का आदमी किसी उच्च खानदान वाले को इस तरह सलाम करें जिससे भेद (छोटे-बड़े का) स्पष्ट होता हो, तो इसमें क्या बुराई है और इसमें नीचता और अपमान की कौन सी बात है, मसावात को चाहे जिस भी अर्थ में ले, हक़ीक़त में वह प्रकृति में दखल अंदाज़ी (हस्तक्षेप) है, देखिए एक कमज़ोर है एक पहलवान है, एक बीमार है एक तंदुरुस्त है, एक धनी है एक निर्धन है, एक राजा है एक प्रजा है, एक बाप है एक बेटा है, एक शिक्षक है एक विद्यार्थी है, एक पीर है एक मुरीद है, एक मर्द है एक औरत है, एक जवान है एक बूढ़ा है, एक हसीन है एक बदशकल (कुरूप) है, एक आलिम (पढ़ा-लिखा) है एक जाहिल (अज्ञानी) है, एक गोरा है एक काला है, तो करो मसावात कहाँ तक करोगे। अगर सारे काले जमा होकर एक कमेटी बना लें एक रेज़ोल्यूशन पास करें और गोरो से माँग करें कि हमको बराबरी चाहिए, हम काले क्यों तुम गोर क्यों, तो क्या जवाब होगा, जो उनको जवाब दो वही हमारी तरफ से समझ लिया जाय। (पेज 244-245, मलफूज़ात भाग-6)
घटिया क़ौम का मुक़्तदा (रहनुमा नेतृत्व)
कुछ वायज़ीन (उपदेशको) और मुनाज़रीन (धार्मिक बहस करने वाले) का चर्चा था, जिनके कारण दीन (धर्म) में बहुत कुछ फसाद फैल रहा था उनमें से कुछ का नसब (वंश) ही ठीक नही कोई घटिया क़ौम का है। फरमाया (मौलना थानवी ने) कि अक्सर ऐसे लोग पढ़ लिख कर और मुक़्तदा (पेशवा,लीडर) बनकर खुद भी खराब होते हैं और दूसरे को भी गुमराह (पथभ्रष्ट) करतें हैं। ऐसो को बस ताबे (अधीनस्थ/मातहत) ही रहने में भलाई है। फिर पूछने पर बताया कि ऐसे लड़को को इल्मदीन मुक़्तदाईयत के दर्जे (नेतृत्व के स्तर) का नही पढ़ना चाहिए (अर्थात ऐसा धार्मिक ज्ञान नही देना चाहिए जिसको पढ़कर वह नेतृत्वकर्ता बन सके) जिनके बारे में ये आशंका हो कि धर्म मे फसाद करेंगें। स्वभाव और व्यवहार देखिए बचपन से ही हाल मालूम हो जाता है। मगर मुदर्रसीन (मदरसे का शिक्षक) गौर नही करते इन्हें तो बस मदरसों को भरने से मतलब और चंदा खींचने से, वरना गौर करें तो मालूम हो सकता है। (पेज 51, मलफूज़ात भाग-17)
मौलना के उपर्युक्त व्यक्तव्य से साफ पता चल रहा है कि वो पसमांदा(उनके अनुसार नीच और घटिया क़ौम) के ना सिर्फ मॉडर्न शिक्षा बल्कि मदरसा शिक्षा के भी विरोधी थे, वहीं वो खुद इस्लामी ज्ञान के मौलना और सूफी बने और इनके सगे भाई मॉडर्न एडुकेशन हासिल किया और बरेली म्युनिसिपिलटी के सेक्रेटरी के पद प्राप्त किया। (पेज 34, अशरफ-उस-सवानेह)
आभार: मैं हज़रत मौलाना डॉ० अब्दुल हक़ क़ासमी साहब का आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने इस लेख से सम्बंधित सामाग्री उपलब्ध करवाया, ज़रूरी दिशा निर्देश एवं उत्साहवर्धन किया। मैं प्रो० मौलना डॉ० मसूद आलम फलाही साहब का भी शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने बहुत से बातों को समझने में मेरी मदद किया।
लेखक: फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी
फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी लेखक, अनुवादक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं
सन्दर्भ: मलफूज़ात हकीमूल उम्मत, जमा करदा, मुफ़्ती मोहम्मद हसन अमृतसरी, इदारा तालिफ़ाते अशरफिया चौक फव्वारा, सलामत प्रेस मुल्तान,पाकिस्तान।
ईमेल: taleefat@mul.wol.net.pk, फ़ोन न० 540513-519240
मौलाना अशरफ अली थानवी और तहरीके आज़ादी, प्रो०अहमद सईद, मजलिसे सियान्तुल मुस्लिमीन लाहौर,नफीस प्रिंटिंग प्रेस लाहौर,1984 अशरफ-उस-सवानेह जिल्द-1 और 2, मुरत्तब ख्वाजा अजीजुल हसन एवं मौलना अब्दुल हक़, इदारा तालिफ़ाते अशरफिया चौक फव्वारा, सलामत प्रेस मुल्तान,पाकिस्तान। तज़किराह मशाएखे देवबंद, मौलाना मुफ़्ती अजीजुर्रहमान, मदनी दारुत तालीफ़ बिजनौर, मदीना प्रेस बिजनौर, 1967 इस्लामी शादी, हकीमुल-उम्मत अशरफ अली थानवी,(मुरत्तब मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद ज़ैद मज़ाहीरी नदवी),फरीद बुक डिपो 422 मटिया महल उर्दू मार्किट जामा मस्जिद देहली- 110006) अम्साले इबरत, मुरत्तब मौलाना हकीम मुहम्मद मुस्तुफा बिजनौरी (खलीफा, हकीमुल उम्मत हज़रत थानवी), सूफी मुहम्मद इक़बाल कुरैशी (खलीफा,मौलना मुफ़्ती मुहम्मद शफी), इदारा तालिफ़ाते अशरफिया चौक फव्वारा, सलामत प्रेस मुल्तान,पाकिस्तान। Ashraf ‘Ali Thanawi Islam in Modern South Asia, Muhammad Qasim Zaman, Oneworld Publications,185 Banbury Road Oxford,2007
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