सदियों से दबी-कुचली मोमिन बिरादरी में यह एक नए इन्क़लाब का आग़ाज़ था। पहले अन्जुमन इस्लाह-बिल-फ़लाह फिर जमीयत-उल-मोमिनीन के नाम से यह तहरीक आगे बढ़ती रही जो 1928 ई० में ऑल इण्डिया मोमिन कॉन्फ्रेंस में तब्दील (बदल) हो गई। अब्दुल क़य्यूम अंसारी अपनी सियासी ज़िन्दगी के आग़ाज़ से ही कांग्रेस, ख़िलाफ़त तहरीक और मोमिन तहरीक से वाबस्ता (जुड़े) थे लेकिन जब अपने वसीअ तर (बड़े) नस्ब-उल-ऐन (मक़सद) के साथ मोमिन तहरीक के क़ायद (नेता) बने तो वह एक मज़बूत सियासी ताक़त बन कर मुल्क के सियासी मन्ज़रनामे पर उभरे। उन के पेश-ए-नज़र गांधी जी की शख़्सियत थी जो दलितों, हरिजनों और कमज़ोर तबक़ात (वर्ग) के हालात बदलने के लिए कोशां (प्रयासरत) थे जिन्हें 'आला ज़ात' के हिन्दू समाज ने ज़िल्लत और पसमांदगी (पिछड़ेपन) का शिकार बना रखा था। यही वजह है कि अंसारी साहब ने तहरीक-ए-आज़ादी की तमाम तर सियासी सरगर्मियों के साथ ही मुसलमानों के पसमांदा तबक़ात को समाजी इन्साफ़ दिलाने के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ़ (समर्पित) कर दी। उन का सब से बड़ा कारनामा मोमिन तहरीक को तहरीक-ए-आज़ादी में अमली तौर पर शामिल कर के कांग्रेस की सब से बड़ी हलीफ़ (हिमायती) जमाअत बना देना था जिस के सबब मुल्क की सियासत ही बदल गई।
Author: MD Arif Ansari
अनुवाद https://www.facebook.com/mohammad.altamash.3954 मोहम्मद अल्तमश
जन्म: 1 जुलाई 1905 - मृत्यु: 18 जनवरी 1973
मुसलमानान-ए-हिन्द ने जंग-ए-आज़ादी में न सिर्फ़ बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि हर अव्वल (अगुआ) दस्ते का फ़रीज़ह (कर्तव्य) अंजाम दिया। लाखों की तादाद में उलेमा, सियासी तथा समाजी रहनुमाओं (नेताओं) और आम लोगों को जाम-ए-शहादत नोश करनी पड़ी। मुख़्तलिफ़ जेलों में क़ैद-ओ-बन्द की सऊबतें (कठिनाई) हत्ता कि काला पानी की सज़ा झेलनी पड़ी और ज़मीन-जायदाद की ज़ब्ती, नीलामी और तबाही-ओ-बर्बादी के मराहिल (दौर, पड़ाव) से गुज़रना पड़ा। इन अदीम-उल-मिसाल (जिस की मिसाल न हो) क़ुर्बानियों के सिले में आज़ादी हासिल हुई। इन पुरख़ुलूस रहनुमाओं में एक अहम रहनुमा का नाम-ए-नामी इस्म-ए-गिरामी अब्दुल क़य्यूम अंसारी (र०अ०) है। वह अख़ीर तक मुस्लिम लीग के दो क़ौमी नज़रिये (Two Nation Theory) और तक़सीम-ए-हिन्द (बंटवारे) की शदीद (तीव्र) मुख़ालिफ़त करते रहे। एक क़ौम परवर रहनुमा के तौर पर अंग्रेज़ी इस्तेमार (उपनिवेश) से लड़ने के साथ ही हकीमानह (बुद्धिमत्ता) तौर से समाजी और सियासी बसीरत (अंतर्दृष्टि) के साथ सदियों से ज़ुबूँ हाली (ख़स्ता हाली) की शिकार मोमिन, बुनकर और दीगर (अन्य) पस करदह (पिछड़ी) बिरादरियों को नए इन्क़लाब से न सिर्फ़ रोशनास (परिचय) बल्कि हमकिनार (भाग्यशाली) कराया। वह ज़िन्दगी की आख़िरी सांस तक फ़अआल (सक्रिय) और मुतहर्रिक (भाग-दौड़ करना) रहे। यूँ वह न सिर्फ़ मोमिन व दीगर पस करदह बिरादरियों बल्कि क़ौम-ओ-मिल्लत के लिए फ़ख़्र-ओ-नाज़ (गौरव) का मरकज़ (केंद्र) बन गए।
अंसारी साहब के जद्द-ए-आला (पूर्वज) हज़रत शैख़ शाह आलम, शहंशाह हुमायूँ की हुकूमत में चकलह दार (वह अधिकारी जो चकले अर्थात विस्तृत भू-भाग की मालगुज़ारी आदि वसूल करता है) के आला (ऊंचे) मनसब (पद) पर फ़ायज़ (विराजमान) थे। बादशाह उन की शुजाअत (बहादुरी), दयानत (ईमानदारी) और दीनदारी का मोअतरिफ़ (परिचित) था लेकिन बवजह ज़ईफ़ी (बुढ़ापा) वह शाही ख़िदमत से सुबुकदोश (कर्तव्य मुक्त) हो कर अपने वतन अकबरपुर और बाद में अपनी आबाद करदह बस्ती नोली, ज़िला ग़ाज़ीपुर, यूपी में अक़ामत गज़ीन (आबाद) हुए। उस वक़्त से इन्क़लाब, 1857 ई० तक इस ख़ानदान का पेशा काश्तकारी (खेती-बाड़ी) व तिजारत (व्यापार) रहा। क़ुर्ब-ओ-जवार (आस-पास) में यह घराना मुअज़्ज़ज़ (सम्मानित) व बाअसर रहा और बाद में 1876 ई० में सोन नदी के किनारे वाक़ेअ (स्थित) डेहरी-ऑन-सोन, सासाराम ज़िला शाहबाद (अब रोहतास), बिहार आ कर आबाद हो गया। अब्दुल क़य्यूम अंसारी के वालिद मौलवी अब्दुल हक़ एक ख़ुशहाल ताजिर (व्यापारी) और बाअसर शख़्सियत के हामिल थे। उन के नाना हज़रत मौलाना अब्दुल्लाह ग़ाज़ीपुरी एक जय्यद (बहुज्ञ) आलिम-ए-दीन और ख़ुदा रसीदह बुज़ुर्ग थे। उन की वालिदह मोहतरमा सूफ़िया ख़ातून हाफ़िज़-ए-क़ुरआन (क़ुरआन को कंठस्थ करने वाली) और आलिमह-ओ-फ़ाज़िलह थीं। अब्दुल क़य्यूम अंसारी की विलादत (पैदाइश) डेहरी-ऑन-सोन में 1 जुलाई 1905 को हुई। इब्तिदाई (प्रारम्भिक) तालीम अपनी वालिदह और नाना के ज़ेर-ए-साया (छत्र छाया) हासिल की। वह इतने ज़हीन थे कि आठ साल की उम्र में उर्दू, अरबी, फ़ारसी और दीनियात (Theology) में अच्छी ख़ासी दस्तरस हासिल कर ली।
सूबा (राज्य) बिहार की इन्क़लाब आफ़रीन सरज़मीन के जिन हज़ारों फ़र्ज़िन्दान-ए-इस्लाम (इस्लाम के बेटों अर्थात मुसलमानों) ने जंग-ए-आज़ादी में लाज़वाल (अमर) क़ुर्बानियां पेश की हैं उन में अब्दुल क़य्यूम अंसारी का ख़ानवादह भी शामिल है। उन के घराने का तअल्लुक़ जद्द-ओ-जेहद-ए-आज़ादी के लिए मशहूर उलेमा-ए-सादिक़पुर की इन्क़लाबी तहरीक (आंदोलन) से भी था। इस लिए बचपन से ही तहरीक-ए-आज़ादी से उन का मुतास्सिर (प्रभावित) होना हैरत की बात नहीं। महज़ 12-13 साल की उम्र से ही वतन की आज़ादी का जज़्बा उन के दिल में अंगड़ाई लेने लगा। उन की ग़ैर मामूली शख़्सियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब वह सिर्फ़ 14 बरस के थे और सासाराम हाई स्कूल में ज़ेर-ए-तालीम थे कि 1919 ई० में मौलाना मोहम्मद अली जौहर ख़िलाफ़त तहरीक के सिलसिले में सासाराम तशरीफ़ लाये तो उन से मुलाक़ात की और जज़्बा-ए-हुर्रियत (आज़ादी का जज़्बा) का इज़हार किया। मौलाना मौसूफ़ (उक्त) को उन की गुफ़्तगू व चेहरे की नूरानियत ने मुतास्सिर किया और बख़ुशी उन्हें ख़िलाफ़त तहरीक का रुक्न (सदस्य) बना दिया। 1920 ई० में पन्द्र साला अब्दुल क़य्यूम अंसारी डेहरी-ऑन-सोन ख़िलाफ़त कमेटी के जनरल सेक्रेटरी बन गए और उसी साल कांग्रेस के ख़ुसूसी इजलास (विशेष सभा) कलकत्ता में सूबा बिहार से डेलीगेट की हैसियत से शरीक हुए। उसी इजलास में वह महात्मा गांधी से मिले और उन की तालीमात व शख़्सियत से ऐसे मुतास्सिर हुए कि ताहयात (जीवनपर्यन्त) उन के मोअतक़िद (विश्वासपात्र अनुयायी) रहे।
उन की सियासी सरगर्मियों (सक्रियता) का असर उन के वालिद के कारोबार पर भी पड़ा। अंग्रेज़ों और उन की हमनवा (सहभागी) कम्पनियों के साथ जारी उन के तिजारती तअल्लुक़ात (सम्बन्ध) मुनक़तह (भंग) हो गए और भारी ख़सारे (नुक़सान) से दो-चार होना पड़ा मगर उन के वालिद ने उन्हें रोका नहीं बल्कि हौसला अफ़ज़ाई करते रहे। घर पर पुलिस के छापे पड़े, तालाशियां हुईं लेकिन उन के चेहरे पर कोई शिकन (सिलवट) नहीं आयी। फ़रवरी 1922 ई० में पुलिस ने अब्दुल क़य्यूम अंसारी को उन की बाग़ियाना (विद्रोही) सरगर्मियों के सबब गिरफ़्तार कर लिया लेकिन सासाराम ज़िला जेल की बदतरीन सख़्तियां भी उन्हें दिल शिकस्तह नहीं कर सकीं। इसी जद्द-ओ-जेहद के दौरान कुछ बरसों तक उन्होंने अलीगढ़ और कलकत्ता में तालीम हासिल करने की कोशिश की। अलीगढ़ का अंग्रेज़ ज़दह माहौल रास नहीं आया तो कलकत्ता जा कर तालीम जारी रखने की कोशिश की लेकिन तालीम से ज़्यादा सियासी सरगर्मियों में मसरूफ़ रहे। वतन की इज़्ज़त और वक़ार के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार रहते। मुल्क के हालात यह थे कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने नापाक क़दम जमाने के साथ ही दुनिया भर में मशहूर हिंदुस्तानी कपड़ों की सनअत (उद्योग) हैंडलूम जिस का बड़ा हिस्सा मुस्लिम बुनकरों के हाथों में था, तबाह-ओ-बर्बाद कर के रख दिया।
1857 के बाद तो बतौर-ए-ख़ास इस तबक़े (वर्ग) को मज़ालिम का निशाना बनाया गया। हिन्दुस्तानी कपड़े बाहर भेजने पर पाबन्दी लगा दी गयी। यहां के बाज़ार मैनचेस्टर (इंग्लैंड) की मिलों के तैयार शुदा कपड़ों से भर दिए गए। इन ज़्यादतियों की शिकार सब से ज़्यादा मोमिन-बुनकर बिरादरी हुई जिस के सबब यह बिरादरी अंग्रेज़ों की मुख़ालिफ़त में पेश-पेश (आगे-आगे) रही। इन्हीं हालात के बत्न (पेट) से 1913 में कलकत्ता में मोमिन तहरीक का ज़हूर (उदय) हुआ जिस के बानियों (संस्थापक) में ज़्यादातर बिहार के ही लोग थे।
सदियों से दबी-कुचली मोमिन बिरादरी में यह एक नए इन्क़लाब का आग़ाज़ था। पहले अन्जुमन इस्लाह-बिल-फ़लाह फिर जमीयत-उल-मोमिनीन के नाम से यह तहरीक आगे बढ़ती रही जो 1928 ई० में ऑल इण्डिया मोमिन कॉन्फ्रेंस में तब्दील (बदल) हो गई। अब्दुल क़य्यूम अंसारी अपनी सियासी ज़िन्दगी के आग़ाज़ से ही कांग्रेस, ख़िलाफ़त तहरीक और मोमिन तहरीक से वाबस्ता (जुड़े) थे लेकिन जब अपने वसीअ तर (बड़े) नस्ब-उल-ऐन (मक़सद) के साथ मोमिन तहरीक के क़ायद (नेता) बने तो वह एक मज़बूत सियासी ताक़त बन कर मुल्क के सियासी मन्ज़रनामे पर उभरे। उन के पेश-ए-नज़र गांधी जी की शख़्सियत थी जो दलितों, हरिजनों और कमज़ोर तबक़ात (वर्ग) के हालात बदलने के लिए कोशां (प्रयासरत) थे जिन्हें 'आला ज़ात' के हिन्दू समाज ने ज़िल्लत और पसमांदगी (पिछड़ेपन) का शिकार बना रखा था। यही वजह है कि अंसारी साहब ने तहरीक-ए-आज़ादी की तमाम तर सियासी सरगर्मियों के साथ ही मुसलमानों के पसमांदा तबक़ात को समाजी इन्साफ़ दिलाने के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ़ (समर्पित) कर दी। उन का सब से बड़ा कारनामा मोमिन तहरीक को तहरीक-ए-आज़ादी में अमली तौर पर शामिल कर के कांग्रेस की सब से बड़ी हलीफ़ (हिमायती) जमाअत बना देना था जिस के सबब मुल्क की सियासत ही बदल गई।
वाक़ेआ (घटना) है कि 1938 ई० में वह पटना की एक असेम्बली सीट पर इन्तेख़ाब (चुनाव) लड़ना चाहते थे। उम्मीदवार तय करने के लिए मुस्लिम लीग के रहनुमा बाहर से भी आये थे और दरख़्वास्त (आवेदन) ली जा रही थीं। मुस्लिम लीग के एक सूबाई रहनुमा की ईमा (इशारे) पर अंसारी साहब ने भी उस सीट के लिए दरख़्वास्त पेश की। जैसे ही वह बाहर निकले कि अंदर से क़हक़हों के साथ आवाज़ सुनाई पड़ी, अब जुलाहे भी एम.एल.ए. बनने का ख़्वाब देखने लगे।
यह सुनना था कि अंसारी साहब पलट कर तेज़ी के साथ अन्दर दाख़िल हुए और अपनी दरख़्वास्त वापस ले कर उसी जगह पुर्ज़े-पुर्ज़े कर दी। उस वक़्त उन्होंने शायद ऐसी ही तौहीन महसूस की जैसी महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से बाहर निकाल दिए जाने के वक़्त महसूस की होगी। इस के बाद उन्होंने ख़ुद को मोमिन कॉन्फ्रेंस के लिए वक़्फ़ कर दिया और बहुत जल्द बिसात-ए-सियासत पर छा गए। मोमिन बिरादरी उन के गिर्द जमा हो गई क्यों कि उन की रहनुमाई में उसे अपनी समाजी और सियासी उमंगों (तमन्नाओं) की तकमील (पूरा होना) के आसार नज़र आने लगे। अंसारी साहब ने जब पटना आ कर सियासत शुरू की उस वक़्त बिहार में मुस्लिम सियासत के उफ़क़ (आकाश) पर डॉक्टर सय्यद महमूद, बैरिस्टर मोहम्मद यूनुस, मिस्टर अज़ीज़, सय्यद ज़फ़र इमाम, सर सुल्तान अहमद और नवाब हसन वग़ैरह चमक रहे थे जिन्हें अपनी सलाहियतों के साथ ही दौलत और ख़ानदानी वक़ार (सम्मान) भी हासिल था। उन सब हज़रात के मुक़ाबले में अंसारी साहब की हैसियत एक ज़र्रे की थी। वह हज़रत मौलाना अब्दुल्लाह ग़ाज़ीपुरी जैसे अज़ीम आलिम-ए-दीन के नवासे ज़रूर थे लेकिन सियासी मैदान में यह ख़ूबी कोई मआनी नहीं रखती थी। उन्हें बिसात-ए-सियासत से हटा देने की बहुत कोशिशें की गयीं लेकिन वह सभी को पीछे छोड़ते हुए आंधी-तूफ़ान की तरह मैदान-ए-सियासत में छा गये।
अंसारी साहब मिस्टर जिन्ना के दो क़ौमी नज़रिये व तक़सीम-ए-हिन्द के सख़्त मुख़ालिफ़ और कांग्रेस की पॉलिसियों के हामी थे। क्रिप्स मिशन जब हिंदुस्तान आया तो मिस्टर क्रिप्स ने दरियाफ़्त (मालूम करना) किया कि मिस्टर जिन्ना के मुक़ाबले में कांग्रेस के साथ वह कौन से मुस्लिम रहनुमा हैं जो मुसलमानों के किसी न किसी हिस्से की तर्जुमानी (व्याख्याता) करते हैं और मुस्लिम लीग व जिन्ना के ख़िलाफ़ मुस्लिम अवाम (जनता) के एक हिस्से को कांग्रेस की जंग-ए-आज़ादी की तहरीक में शरीक कर सकते हैं! पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, मौलाना हुसैन अहमद मदनी और अब्दुल क़य्यूम अंसारी के नाम लिये थे। कांग्रेस के हिमायती यही तीन मुस्लिम रहनुमा थे जिन के पीछे मुसलमानों की बड़ी तादाद थी। मगर इन तीनों में अंसारी साहब ही वह वाहिद रहनुमा थे जिन्हें मेहनतकश अवाम के एक बड़े हिस्से में तंज़ीमी क़ूवत (सांगठनिक बल) की हिमायत हासिल थी। यह वाक़ेआ है कि अंसारी साहब ने जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द और ख़िलाफ़त तहरीक के सरकरदह क़ौमी रहनुमाओं के मशवरे से क्रिप्स मिशन के सामने एक ऐसी 6 निकाती तजवीज़ पेश की थी जिस में मरकज़ी (केन्द्रीय) और रियासती (राज्यीय) हुकूमतों में मोमिन जमाअत की मोअस्सर (असरदार) नुमाइंदगी (प्रतिनिधित्व) और मोमिन अंसार अवाम के लिए माक़ूल रिज़र्वेशन नीज़ दूसरी मुराआत (छूट) का मुतालबा (मांग) किया था। इन मुतालिबात में वह ज़बरदस्त दूरअन्देशानह सियासी हिकमत अमली शामिल थी जिस से यह आसानी के साथ साबित हो जाता कि मुसलमानान-ए-हिन्द की निस्फ़ (आधी) से ज़ायद आबादी मुस्लिम लीग के साथ नहीं है। पण्डित नेहरू ने अगर इस तजवीज़ (सलाह) को मुस्तरद (रद्द) न कर दिया होता तो मिस्टर जिन्ना तक़सीम-ए-हिन्द के अपने मन्सूबे (योजना) में शायद कभी कामयाब नहीं हो पाते। इस से यह वाज़ेह (साफ) होता है कि तक़सीम-ए-हिन्द की ज़िम्मेदार सिर्फ़ मुस्लिम लीग ही नहीं बल्कि ख़ुद कांग्रेस की आला क़यादत (नेतृत्व) भी है।
मोमिन कॉन्फ्रेंस के सरबराह (प्रशासक) की हैसियत से अंसारी साहब मुल्कगीर (देश भर) शख़्सियत के हामिल थे लेकिन कांग्रेस में शामिल हो जाने के बावजूद पार्टी की बालादस्ती (उच्च) पसन्द सियासत ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका और कई बार नज़रअंदाज़ भी किया। अगर ऐसा न होता तो एक मुदब्बिर (कुशल) सियासतदां होने के बावजूद उन्हें बिहार तक ही महदूद (सीमित) नहीं कर दिया जाता। 1967 के असेम्बली इंतेख़ाबात में वह डेहरी हलक़े (क्षेत्र) से कामयाब हुए थे लेकिन कांग्रेस को अक्सरियत (बहुमत) हासिल नहीं हुई और मख़लूत (गठबंधन) सरकार बनायी गयी जो ज़्यादा दिनों तक नहीं चली। 1969 में वस्त-ए-मुद्दती (मध्यावधि) इंतेख़ाब हुआ तो उन का टिकट ही काट दिया गया फिर भी कांग्रेस वहां कामयाब न हो सकी। इस के बाद कांग्रेस ने अपनी ग़लती का तदारक (सुधार) करते हुए उन्हें राज्य सभा भेजा।
मोहतरमा इंदिरा गांधी उन्हें मरकज़ी वज़ीर (केंद्रीय मंत्री) बनाना चाहती थीं लेकिन असबियत-ओ-बालादस्ती (पक्षपातपूर्ण एवं तथाकथित उच्च वर्गीय मानसिकता) पसन्द बआज़ मुस्लिम रहनुमाओं के दबाव में वह ऐसा नहीं कर सकीं। 1972 में जब बिहार कांग्रेस में रस्साकशी हो रही थी तो मुत्तफ़िक़ह (सर्वसम्मत) फ़ैसला हुआ कि अब्दुल क़य्यूम अंसारी साहब को वज़ीर-ए-आला (मुख्यमंत्री) बनाया जाए। बहुत से रहनुमाओं ने उन्हें मुबारकबाद भी दे दी लेकिन बताया जाता है कि बिरहमन (ब्राह्मण) लॉबी ने मोहतरमा इंदिरा गांधी को वरग़ला कर केदार पाण्डेय को वज़ीर-ए-आला बनवा दिया। यूँ 1946 से 1972 तक वह बिहार के सियासी उफ़क़ पर एक बाअसर सियासतदां की हैसियत से चमकते रहे।
अवाम की ख़िदमत के लिए अंसारी साहब हर लम्हे कमरबस्ता रहते थे। ग़रीबों की माली इमदाद करने, उन को महाजनों के पंजों से बचाने और बेगारी व बंधुआ मज़दूरी से निजात दिलाने के साथ ही ग़रीब बुनकरों की फ़लाह-ओ-बहबूद (भलाई) के लिए कोऑपरेटिव सोसाइटियां क़ायम करायीं और दीगर बहुत से मुस्बत (सकारात्मक) इक़दामात किये। नादार (ग़रीब) तलबा (छात्र) को वज़ाएफ़ (छात्रवृत्ति) दिलवाने के साथ ही ज़रूरी तालीमी इस्लाहात करवायीं और बी.एम.सी. मकतब (पाठशाला) खुलवाए जिन की वजह से लाखों तलबा का मुस्तक़बिल रौशन हुआ। ज़िन्दगी भर हिन्दू-मुस्लिम इत्तेहाद (एकता) और समाजी व क़ौमी हम-आहंगी (सामंजस्य) के लिए कोशिशें करते रहे। ताहयात मुजाहिदाना व दरवेशाना (फक्कड़पन) ज़िन्दगी बसर की जिस की लोग मिसाल देते हुए नहीं थकते। उन के आदात-ओ-अतवार, सादगी, हलीमी (नरमी), बुर्दबारी (सहनशीलता), दीनदारी-ओ-परहेज़गारी और हक़गोई (सच बोलना)-ओ-बेबाकी की दुनिया क़ायल (विश्वास करना) है जो उन्हें अपने बुज़ुर्गों से विरसे में मिली थीं। यही वजह है कि यकसां (समान) तौर से समाज के हर तबक़े के अन्दर महबूब-ओ-मक़बूल थे। बिलआख़िर, अपने अह्द (दौर) का यह अज़ीम (महान) रहनुमा अवाम की ख़िदमत करते हुए 18 जनवरी 1973 को अपने हलक़ा-ए-इन्तेख़ाब के दौरे के दरमियान अचानक हरकत-ए-क़ल्ब (दिल की हरकत) रुक जाने से वफ़ात पा गए और डेहरी-ऑन-सोन में ही सुपुर्द-ए-ख़ाक (दफ़्न) किये गए।
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