जब सरकार चुनाव सिर्फ इसलिए कराए ताकि ये दिखा सके कि किसी क्षेत्र विशेष पर अब उसका अधिकार है तब ऐसे में मन में एक सवाल उभरता है कि लोकतंत्र क्या है फिर ? क्या चुनाव , मंत्री , विधायिका , संसद ही लोकतंत्र है या स्वतंत्रता , समानता , न्याय , गरिमा , विरोध/असहमति का अधिकार जैसे आदर्श लोकतंत्र है . इसी बात की पड़ताल करती हुई फिल्म है “न्यूटन” जो इस बात को रेखांकित करती है कि सिर्फ डंडे और झंडे से देश नहीं बनता
Author:Lenin Maududi
जब सरकार चुनाव सिर्फ इसलिए कराए ताकि ये दिखा सके कि किसी क्षेत्र विशेष पर अब उसका अधिकार है तब ऐसे में मन में एक सवाल उभरता है कि लोकतंत्र क्या है फिर ? क्या चुनाव , मंत्री , विधायिका , संसद ही लोकतंत्र है या स्वतंत्रता , समानता , न्याय , गरिमा , विरोध/असहमति का अधिकार जैसे आदर्श लोकतंत्र है । इसी बात की पड़ताल करती हुई फिल्म है “न्यूटन” जो इस बात को रेखांकित करती है कि सिर्फ डंडे और झंडे से देश नहीं बनता । जब तक लोकतंत्र का आदर्श अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुचता तब तक एक राष्ट्र के रूप में हम खुद को स्थापित नहीं कर सकते
फिल्म की कहानी नूतन कुमार (राजकुमार राव) की है । जिसको अपना नाम पसंद नही था, इसलिए वह नू को न्यू और तन को टन बना कर न्यूटन कुमार बन जाता है। ये गौर करने वाली बात है कि नूतन के नाम से कुछ महिलाएं इतनी लोकप्रिय हुयीं कि पुरुषों को यह नाम रखने में शर्म आने लगी थी। यहाँ ये बात भी गौर करने वाली है कि हिंदी सिनेमा में मुख्य किरदार के नाम हमेशा उच्च जातियों के नाम हुआ करते हैं । क्या इसे हिंदी सिनेमा की ब्राह्मणवादी सोच नही कहा जाएगा ? हिंदी सिनेमा में दलित नाम के मुख्य किरदारों को जगह नहीं दी जाती है।
आज भी भारत में कुछ दलित जातियों का नाम गाली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इस मिथ को तोड़ने की कभी कोशिश नहीं की जाती । इस फिल्म स्पष्ट रूप से तो नहीं बताया गया है कि न्यूटन दलित है पर उसके घर में बाबा साहब की तस्वीर इस ओर इशारा करती है। न्यूटन एक आदर्शवादी और जिद्दी लड़का है जब उसको पता चलता है कि लड़की नाबालिग़ है तो वह रिश्ता तोड़ लेता है , इसपर उसके पिता जी नाराज़ हो के कहते हैं “नौकरी लग गई तो दिमाग आसमान पे चला गया है कल कहोगे कि ठाकुर-ब्राह्मण की लड़की से शादी करूँगा “। कितनी आसानी से यहाँ जाति और वर्ग के बिच अंतर को स्पष्ट कर दिया गया है। दलित भले ही सरकारी नौकरी पा कर अपनी आर्थिक स्थिति मज़बूत कर ले पर उसे अपने सामाजिक स्थिति से उठने के लिए अभी संघर्ष करना है
फिल्म में न्यूटन कुमार को छत्तीसगढ़ में नक्सली प्रभावित सुदूर एक गांव में चुनाव अधिकारी बना कर भेजा जाता है ।न्यूटन के साथ लोकनाथ (रघुबीर यादव) भी होते हैं । यहाँ अभी तक चुनाव नहीं कराया गया था । छत्तीसगढ़ पहुंचने के बाद इनकी मुलाकात असिस्टंट कमान्डेंट आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी ) से होती है जो स्वभाव से कठोर और निराशावादी लगते हैं । उनके अंदर की जो खीज है वो बहुत ही स्वभाविक है । जो उनके लम्बे अनुभव से आई है इसी अनुभव के आधार पे वो न्यूटन कुमार से कहते हैं कि “मै लिख के दे सकता हूँ कि कोई नहीं आएगा वोट देने” । पर न्यूटन एक आदर्शवादी जिद्दी लड़का है और चुनाव का प्रशिक्षण देने वाला प्रशिक्षक संजय मिश्रा के शब्दों में कहें तो ‘ न्यूटन की दिक्कत ईमानदारी नहीं बल्कि ईमानदारी का घमंड है ‘ । यहाँ ये देखना भी दिलचस्प है कि सभी को न्यूटन की ईमानदारी से की जा रही ड्यूटी से दिक्कत है कि भाई इतनी भी क्या ईमानदारी करना ? न्यूटन तैय करता है कि चुनाव वहीँ होगा जहाँ तैय किया गया है । न्यूटन की मदद के लिए स्थानीय आदिवासी लड़की (जो टीचर है ) माल्को (अंजलि पाटिल) आती हैं जो बूथ लेवल आफीसर के रूप में ड्यूटी पर है। पर आत्मा सिंह को किसी भी स्थानीय पर यकीन नहीं है और न ही माल्को को अर्धसैनिक बल पर इसीलिए माल्को कहती है कि उसे ब्लूट प्रूफ जैकेट नहीं चाहिए।
कहीं न कहीं यहाँ ये बात साफ़ होती है कि नक्सली स्थानीय निवासियों के वैसे दुश्मन नहीं है जैसे अर्धसैनिक बलों के हैं. इस तरह इस फिल्म में इसमें तीन पक्ष नजर आते हैं, पहला एक दिन के लिए चुनाव की ड्यूटी पर आया सरकारी कर्मचारी, दूसरा जंगल में रह रहे आदिवासी का और तीसरा वहां तैनात सुरक्षा बलों की टुकड़ी। पर न्यूटन के इलावा दोनों पक्ष इसी जंगल के हैं इसीलिए कोशिश की गई है कि फिल्म को इस तरह बनाया जाए कि दर्शक भी न्यूटन के साथ साथ ही नक्सल प्रभावित क्षेत्र को देखता है। पूरी फिल्म में कहीं भी हिंसा नहीं दिखाई गई है और न ही नक्सल दिखाए गए हैं पर माहौल में एक तनाव है जिसे आप महसूस कर सकते हैं। फिल्म की खासियत यह है कि यह किसी का पक्ष लिए बगैर सबका पक्ष रखती है। न्यूटन जब जले हुए गाँव देखता है तो पूछता है कि इसे किसने जलाया पर कोई जवाब नही मिलता फिर जब वह स्कूल के पीछे भारत और सैनिकों के खिलफ कुछ लिखा हुआ पढ़ता है तो वह माल्को से कहता है कि ये नक्सलियों ने किया है न, माल्को बहुत ही सरलता से जवाब देती है कि जब तुम किसी का गाँव जलाओगे तो गुस्सा तो आयगा ही न्यूटन को जो शोषण, जो अत्याचार बेचैन कर रहा है मल्को उसे देखते हुए बड़ी हुई है। यहां इस प्रश्न पर भी गौर करें कि क्या वजह है कि हर बार जब हम सोचते हैं कि माओवादी खत्म हो गए तो । कैैसे वह हर बार दुबारा और ज्यादा संगठित होकर उठ जााते हैं ? आखिर ये नक्सल पूरी तरह खत्म क्यों नही होते ? क्या कुछ बुद्धिजीवी और विदेशी ताकतें बस बोल देती हैं और ये भोले-भाले आदिवासी नक्सल बन जाते हैं ? और बंदूक लिए हमारे सुरक्षा बलों पर टूट पड़ते हैं ? या इसकी जड़ में गरीबी, भूखमरी,बेरोज़गारी और मानवाधिकार उलंघन से जुड़े मामले हैं ?
सेना का काम लोकतंत्र स्थापित करना नहीं होता। ये बात इराक-अफगानिस्तान में जितनी सच है उतनी ही कश्मीर और छत्तीसगढ़ में भी सच है इसलिए आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी ) को इस बात में कोई रूचि नहीं की चुनाव हो और निष्पक्ष चुनाव हो। उसका काम व्यवस्था बनाए रखना और आदेशों को मानना मात्र है। जैसे ही ये खबर मिलती है कि कोई विदेशी पत्रकार डी.आई.जी साहब के साथ चुनाव बूथ का दौरा करने आ रही है तो आदिवासियों को महान भारतीय लोकतंत्र की इज्ज़त बचाने के लिए सेना द्वारा जबरन वोटिंग बूथ में लाया जाता है। आदिवासियों को अपने चुनाव प्रत्याशी तो दूर चुनाव का अर्थ भी नहीं पता है। ऐसे में चुनाव एक मज़ाक से ज्यादा कुछ और नज़र नहीं आता। पर हमारी मीडिया के लिए लोकतंत्र का मतलब ऊँगली में लगी चुनाव की सियाही मात्र है.यहाँ सुरक्षा बलों की चिंताएं भी जायज़ है। आत्मा सिंह कहता है कि रात में गश्त लगाने के लिए नाईट दूरबून नही है। सुरक्षा के बहुत कम उपकरण हमारे पास हैं। हम कैसे रात में जंगलों में रुक पाएंगे ? आत्मा राम हर हाल में जल्द से जल्द चुनाव कराकर अपने सैनिक बेस में लौटना चाहता है जबकि न्यूटन चाहता है कि चुनाव शाम 6 बजे तक चले जैसाकि आदेश है।
मल्को न्यूटन से कहती है कि जंगल से थोड़ी ही दूर तुम शहर में रहते हो पर तुम्हे जंगल के बारे में कुछ नहीं पता। यही सचाई है इस देश की हमें मुख्यधारा का पक्ष तो बताया जाता है पर जंगल का पक्ष नहीं बताया जाता। आदिवासी सदियों से इन जंगल में रहते आए हैं। ये उनका घर था। उनकी अपनी एक संस्कृति है , जीने का तरीका है । सभ्य और असभ्य का अंतर बस इतना है कि सत्ता और शक्ति जिसके हाथ में है, वह सभ्य है। ब्रिटेन के लिए एक वक्त में सभी भारतीय असभ्य थे। भारत को अंग्रेज़ संपेरों का देश कहते थे। उस वक़्त भारत के राष्ट्रवादियों ने अपनी संस्कृति की वेशेषता बयान की और बताया कि कैसे भारत की संस्कृति महान है। सभ्यता और असभ्यता का खेल कैसे सत्ता और शक्ति को केंद्र में रख कर खेला जाता है। शक्तिशाली वर्ग अपनी संस्कृति को 'जनसंस्कृति' के नाम पर स्थापित करना चाहता है ताकि हर व्यक्ति उसी संस्कृति में सोचे और उसी के हिसाब से जिये। इससे शक्तिशाली वर्गों को शासन चलाने में आसानी होती है। ये 'बौद्धिक उपनिवेश' का काल है. वर्चस्व की संस्कृति आप के मस्तिष्क पर राज करती है।
आज फिर हमें आदिवासी संस्कृति के बारे में सोचना होगा। आदिवासी संस्कृति में सती प्रथा नही है,पर्दा प्रथा नही है, कन्याभ्रूण हत्या नही है, दहेज हत्या नही है, यह संस्कृति स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित है.निजी संपत्ति के लिए खून-खराबा नही है। हमने जनजातियों की भेष-भूसा के साथ-साथ उनकी खाद्य संस्कृति को भी असभ्य माना। इस पर कांचा अईलैय्या कहते हैं कि यदि किसी जनजातिय व्यक्ति ने मांस खाना छोड़ दिया तो हम उसे सभ्य कहते हुए उसकी इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहते हैं, लेकिन किसी ब्राह्मण ने मांस और मछली खाना प्रारंभ कर दिया तो उसका जनजातिकरण नही हुआ। यदि वह बदले भी तो बस पाश्चात्य(यूरोपीय संस्कृति) हो गए! (जनजाति नही हुए)। अगर एक जनजाति समाज में व्यक्ति अर्ध नग्न अवस्था में रहता हो तो वह असभ्य है पर वहीं पूर्ण नग्न नागा साधु न सिर्फ सभ्य हैं बल्कि पूजनीय भी हैं। ताज़ी हवा, शुद्ध पानी,तनाव मुक्त जीवन आदिवासी समाज की विशेषता है। जिसे आज हम सब तलाश रहे हैं। पर हमें आदिवासी असभ्य लगते हैं। हम उन्हें सभ्य करते हुए उनका सब कुछ छीनना चाहते और अपनी संस्कृति की सारी बुराइयां उनको देना चाहते हैं। हमने उन्हें सभ्य बनाने के नाम पर उनके घरों पर कब्ज़ा कर लिया। उनके अराध्य माने जाने वाली पहाडियों का उत्खनन शुरू कर दिया। क्या देश हित में समुद्री रास्ते को छोटा करने के लिए ‘राम सेतु' को हम तोड़ सकते हैं ? क्या आज स्वास्थ्य के बढ़ते ख़तरे को देखते हुए रामजन्म भूमि पर भगवान राम के नाम पर मंदिर की जगह 10,000 बेड का कोई अस्पताल बनाया जा सकता है ? अगर विकास के आगे आस्था का मोल नहीं है तो बहुसंख्यको की आस्था के आगे सरकार और न्यायालय क्यों झुक जाया करती हैं ?
सरकार बलप्रयोग से दंडकारण्य को मओवादियो मुक्त करा सकती है पर असली लड़ाई तब शुरू होगी जब जंगल में रहने वाले आदिवासियों को लोकतंत्र के आदर्शो से जोड़ने की बात आएगी. उन्हें मओवादियो की सर्वहारा-शक्ति के नारों में अपना भविष्य इसलिए दीखता है क्योंकि लोकतंत्र के नारे खोखले निकले . सरकारें आई और गई पर उनके हालत जस के तस रहे. अगर इस लोकतान्त्रिक तरीके से हमें इस समस्या का समाधान करना है तो लोकतंत्र के आदर्श को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचना होगा
26 जनवरी को हम विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर रहे है राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन मे हम असमानता से होंगे।राजनीति में हमारी पहिचान एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य की होगी, परन्तु हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करते रहेंगे, जिसका मुख्य कारण संविधान का सामाजिक और आर्थिक ढांचा है। अग़र हमने इस विरोधाभास को लम्बे समय तक बनाए रखा, तो राजनीतिक लोकतन्त्र खतरे में पड़ जायेगा।
डा. बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम, 15, पृ.1261
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