फिरका बनाम जाति: असरदार कौन?

यह मुस्लिम समाज का दुर्भाग्य ही है कि जो वर्ग मुस्लिम समाज को धार्मिक व राजनैतिक रूप से संचालित कर रहा है वह मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या जाति के वजूद को ही स्वीकार करने को तैयार नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह वर्ग इस हक़ीक़त से अनभिज्ञ है बल्कि सच यह है कि वह इस तथ्य को भली भांति जानता है लेकिन यह इनकार मात्र इस लिए कर रहा है क्योंकि यदि उस ने मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था को स्वीकार कर लिया तो उसे आज नहीं तो कल अवश्य ही आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत-ए-उलेमाए हिन्द, मिल्ली काउन्सिल, उलेमा-मशाइख़ बोर्ड, इदारा-ए-शरिया, आदि सहित तमाम संस्थाओं, शाही व बड़ी मस्जिदों, मदरसों, अन्य मुस्लिम संगठनों, मुसलमानों के नाम पर बने राजनितिक दलों वग़ैरह में मुस्लिम समाज में मौजूद हर जाति को अपने साथ जोड़े रखने व एकता बनाये रखने के लिए उसी प्रकार प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा, जैसे तमाम फ़िरक़ों में एकता बनाये रखने व अपने साथ जोड़े रखने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में हर फिरके के लोगों को प्रतिनिधित्व देना पड़ रहा है. तथा इसी प्रकार सभी राजनैतिक दलों व सरकारी संस्थाओ में जाति के आधार पर सभी मुस्लिम जातियों को राजनैतिक पार्टियाँ व सरकारें प्रतिनिधित्व देने लगेंगी जहां अभी यह अशराफ़ वर्ग (तथाकथित सैयद, शैख़, मिर्ज़ा वगैरह) मुसलमानों के नाम पर सभी जातियों के हिस्से पर पहले दिन से ही कुण्डली मारकर नाजायज़ तरीके से क़ब्ज़ा जमाये हुए हैं।


26 April 20226 min read

Author: Momin

मुस्लिम समाज में जिस तरह से जातियां और फ़िरक़े (Sects) हैं वह किसी भी व्यक्ति से छिपे नही हैं, फिर चाहे वह कोई मुस्लिम समाज का जानकार हो या अनभिज्ञ। किन्तु जहां मुस्लिम समाज/इस्लाम में मौजूद फ़िरक़ों की समस्या को मुस्लिम समाज में मौजूद सभी वर्ग (उच्च, मध्य, निम्न) खुले आम स्वीकार करते हैं वहीं मुस्लिम समाज के लोगों में आम तौर पर यह मान्यता व्याप्त है कि मुसलमानों में जातियां तो हैं लेकिन इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है, हालाँकि यह भी पूरी तरह सही नहीं है।【1】 हद तो यह है कि मुस्लिम समाज का एक वर्ग (राजनैतिक व धार्मिक मठाधीशों का वर्ग) मुस्लिम समाज में जाति समस्या भी है, इस सत्यता से भी इनकार कर दे रहा है।

BBC Hindi

यह मुस्लिम समाज का दुर्भाग्य ही है कि जो वर्ग मुस्लिम समाज को धार्मिक व राजनैतिक रूप से संचालित कर रहा है वह मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या जाति के वजूद को ही स्वीकार करने को तैयार नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह वर्ग इस हक़ीक़त से अनभिज्ञ है बल्कि सच यह है कि वह इस तथ्य को भली भांति जानता है लेकिन यह इनकार मात्र इस लिए कर रहा है क्योंकि यदि उस ने मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था को स्वीकार कर लिया तो उसे आज नहीं तो कल अवश्य ही आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत-ए-उलेमाए हिन्द, मिल्ली काउन्सिल, उलेमा-मशाइख़ बोर्ड, इदारा-ए-शरिया, आदि सहित तमाम संस्थाओं, शाही व बड़ी मस्जिदों, मदरसों, अन्य मुस्लिम संगठनों, मुसलमानों के नाम पर बने राजनितिक दलों वग़ैरह में मुस्लिम समाज में मौजूद हर जाति को अपने साथ जोड़े रखने व एकता बनाये रखने के लिए उसी प्रकार प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा, जैसे तमाम फ़िरक़ों में एकता बनाये रखने व अपने साथ जोड़े रखने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में हर फिरके के लोगों को प्रतिनिधित्व देना पड़ रहा है. तथा इसी प्रकार सभी राजनैतिक दलों व सरकारी संस्थाओ में जाति के आधार पर सभी मुस्लिम जातियों को राजनैतिक पार्टियाँ व सरकारें प्रतिनिधित्व देने लगेंगी जहां अभी यह अशराफ़ वर्ग (तथाकथित सैयद, शैख़, मिर्ज़ा वगैरह) मुसलमानों के नाम पर सभी जातियों के हिस्से पर पहले दिन से ही कुण्डली मारकर नाजायज़ तरीके से क़ब्ज़ा जमाये हुए हैं।

आख़िर इस से बड़ा मज़ाक़ और इन से बड़ा दोहरे मेयार वाला (दोगला) समूह/व्यक्ति कौन हो सकता है जो स्वयं जाति आधारित फ़तवे भी देता हो और ऐसे जाति आधारित फ़तवे देने वालो को【2】 महान इस्लामिक विद्वान भी मानता हो, उनको अपना आदर्श भी घोषित किये हुए हो और मुस्लिम समाज में मौजूद ज़ाति समस्या (ऊँच-नीच) को मुस्लिम में ज़ाति की मौजूदगी को ही न जानता व मानता हों, उसे स्वीकार करना तो दूर की बात है.

मुस्लिम समाज में व्याप्त जाति समस्या कितनी बड़ी समस्या है इस का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि मुस्लिम समाज में मौजूद तमाम फ़िरक़े (बरेलवी, देवबंदी, अहले हदीस, वग़ैरह) एक दूसरे को काफ़िर, गुस्ताख़-ए-रसूल, कब्रपुजवा, मुशरिक, बिद्दअती जैसे नामों/उपाधियों से सुशोभित करते फिर रहे हैं. एक फ़िरक़े द्वारा दूसरे फिरके के विद्वानों के सम्बन्ध में निहायत घटिया शब्दों व ओछी कहानियों का गढ़ना, जैसे देवबन्द के प्रसिद्ध विद्वान https://pasmandademocracy.com/biography/faizi/अशरफ अली थानवी साहब के सम्बन्ध में ये गढ़ना कि वह (थानवी साहब) जेल में पैदा हुआ और शौचालय में मरा, व उनके नामों को बिगाड़कर लेना जैसे जमाते इस्लामी के संस्थापक अबुल अला मौदूदी साहब को मरदूदी कहना, बरेलवी विद्वान अहमद रज़ा ख़ाँ उर्फ़ आला हजरत को काला हजरत कहना बड़ी मामूली बातें हैं.

इतना ही नहीं एक फिरके का व्यक्ति दूसरे फिरके के व्यक्ति के पीछे नमाज़ नहीं पढ़ता, कुछ मस्जिदों में तो दूसरे फिरके के व्यक्ति के प्रवेश निषेध सम्बंधी बोर्ड तक बाहर लगे हुए हैं, कुछ तो इतने सख्त हैं कि एक फिरके का व्यक्ति अगर दूसरे फिरके के व्यक्ति की नमाज़े जनाज़ा (मृतक के पक्ष में की जाने वाली सामूहिक दुआ) भी पढ़ ले तो उसका निकाह टूट जाता है उसे दुबारा निकाह पढ़वाना पड़ता है. कभी-कभी तो फिरके अलग-अलग होने के कारण सगे भाई को सगे भाई द्वारा माता/पिता के अन्तिम संस्कार तक में शामिल होने तक से रोक दिया जाता है.

फिरके अलग होने पर लाश को दफनाने के लिए कब्रिस्तान में स्थान भी कभी-कभी नहीं मिल पाते हैं. कभी-कभी तो शादी विवाह के निमन्त्रण पत्रों पर भी लिख दिया जाता है कि फलां-फलां फिरके के लोगों का आना मना है. सोचिये निमन्त्रण पत्र पर भी लिखना क्या दर्शाता है?

स्पष्ट बात यह है कि विवाह जैसे अवसरों पर वही लोग जाते हैं जिन्हें आमन्त्रित किया जाता है. निःसन्देह निमन्त्रण अपने जान पहचान वालों को बल्कि करीबी मित्रों व रिश्तेदारों को ही दिया जाता है. फिर भी निमन्त्रण पत्रों पर ऐसा लिखना ये स्पष्ट करता है कि- आपको विवाह में बुला अवश्य रहे हैं या हम आपको अपना शुभचिंतक अवश्य समझते हैं किन्तु यदि आप का फिरका मेरे फिरके से अलग है तो आप मत आईयेगा. आपकी जरूरत मुझको नहीं है. आप कितने भी अच्छे हमारे मित्र अथवा करीबी रिश्तेदार ही क्यों न हों.

इतनी नफरत, दूरियाँ होने के बाद तथा एक दूसरे के साथ ऐसे अमानवीय व्यवहार करने के बावजूद एक फिरके का व्यक्ति अपने पुत्र या पुत्री का विवाह जब तलाशता है तब वह फिरका देखकर नहीं बल्कि ज़ाति देखकर ही रिश्ता तलाशता है. किसी बरेलवी या देवबंदी फिरके के किसी जोलाहा, धुनिया, कुजड़ा, फकीर आदि की हिम्मत नहीं है कि वह अपने बेटे के लिए अपने ही फिरके के किसी (तथाकथित) सैयद,मिर्ज़ा वगैरह साहब की बेटी का हाथ माँग लें क्योंकि वह उनका कुफू(बराबर/योग्य) नहीं है【2】

भले ही दोनों एक दूसरे की नज़र में सच्चे पक्के मुसलमान हैं. एक फिरके (देवबंदी, बरेलवी वगैरह) का जोलाहा, धुनिया, कुजड़ा, (तथाकथित) सैयद, मिर्ज़ा वगैरह जो दूसरे फिरके के लोगों को काफ़िर, मुशरिक, गुस्ताखे रसूल, बिद्अती वगैरह कहता फिरता है, जिसकी नमाज़े, जनाज़ा पढ़ने से उसका निकाह टूट जाता है, जिसके निकाह पढ़ाने से उसका निकाह नहीं होता उसको दुबारा अपने फिरके के आलिम से निकाह पढ़वाना पड़ता है, उसी गुस्ताखे रसूल, मुशरिक, काफ़िर से ही रिश्ता कायम करता है क्योंकि वह उसकी ज़ाति का है.

अब आप स्वयं तय करें कि मुस्लिम समाज में- फिरके ज़्यादा असरदार हैं या जातियाँ?

संदर्भ:- 【1】लेखक का एक अन्य लेख “इस्लामिक ज़ाति व्यवस्था बनाम इबलीसवाद” देखें https://bit.ly/2J1iD1S</p

【2】अहमद रज़ा खान साहब(फतावे रिजविया 3/118 प्रश्न-13, 3/122 प्रश्न-15), अरशदुल कादिरी साहब(ज़ेरो-ज़बर), अमजद अली साहब(बहारे शरीअत), मुफ्ती अज़ीज़ुर्रहमान साहब(फतावे दारुलउलूम देवबन्द-किताबुलनिकाह 8/208 प्रश्न 1143 व 1162 संकलनकर्ता मुफ्ती मो0 जफीरुद्दीन साहब), मुफ्ती ज़फ़ीरुद्दीन मिफ्ताही साहब(फतावे दारुलउलूम देवबन्द 8/212 प्रश्न 1150 व 1151), मुफ्ती किफायतुल्लाह देहलवी साहब(किफायतुलमुफ्ती-कितबुलनिकाह 5/213), अशरफ अली थानवी साहब(बहिश्ती ज़ेवर-निकाह का बयान), मुफ्ती तक़ी उसमानी साहब(माहनामा मज़ाहिरउलूम सहारनपुर यूपी अगस्त-1999 भाग-5 शीर्षक-निकाह और बिरादरी पेज 24-25), मुफ्ती महमूद हसन गंगोही साहब(फतावे महमूदिया-किताबुलनिकाह 3/226 प्रश्न-199 संकलनकर्ता मो0 फारूक साहब), सैयद मीया मो0 नजीर हसन साहब(फतावे नजीरिया-किताबुलनिकाह), मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा तरतीब की गयी पुस्तक मजमूआ क़वानीने इस्लामी.



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