रसूल गलवान: भारतीय सीमा का पसमांदा प्रहरी

भारत-चीन सीमा विवाद के एक बीच एक पसमांदा व्यक्तित्व केन्द्रीय भूमिका में उभर कर सामने आया है जिस के नाम पर चर्चित वैली का नाम गलवान घाटी पड़ा। वाक़्या यह है कि एक बार एक खोज-यात्री लेह के इलाक़े में फंस गया था और बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था ऐसे में रसूल गलवान नाम के एक अल्प आयु (लगभग 14 वर्षीय) बालक ने एक नदी से होते हुए रास्ता सुझाया और उन्हें बाहर निकाला। वह यात्री बालक की सूझ-बूझ से बहुत प्रभावित हुआ और उस ने उस नदी का नाम बालक रसूल गलवान के नाम पर गलवान नदी रखा फिर उस के आस-पास की घाटी गलवान घाटी के नाम से मशहूर हो गई।


25 April 20229 min read

Author: Faizi

भारत-चीन सीमा विवाद के बीच एक पसमांदा व्यक्तित्व केन्द्रीय भूमिका में उभर कर सामने आया है जिस के नाम पर चर्चित वैली का नाम https://www.bbc.com/hindi/media-53093077 गलवान घाटी पड़ा। वाक़्या यह है कि एक बार एक खोज-यात्री लेह के इलाक़े में फंस गया था और बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था ऐसे में रसूल गलवान नाम के एक अल्प आयु (लगभग 14 वर्षीय) बालक ने एक नदी से होते हुए रास्ता सुझाया और उन्हें बाहर निकाला। वह यात्री बालक की सूझ-बूझ से बहुत प्रभावित हुआ और उस ने उस नदी का नाम बालक रसूल गलवान के नाम पर गलवान नदी रखा फिर उस के आस-पास की घाटी गलवान घाटी के नाम से मशहूर हो गई। अपने बाल्यकाल से ही रसूल गलवान ने इंग्लैंड, इटली, आयरलैंड और अमेरिका के प्रसिद्ध खोज-यात्रियों के साथ खोज-यात्रा का दिशा निर्देशन किया था। इतिहास के पन्नो में खो चुके पसमांदा आदिवासी समाज से सम्बंध रखने वाले रसूल गलवान का टट्टू पालक से ब्रिटिश जॉइंट कमिशनर के प्रमुख सहायक (अक्सकल) तक का सफ़र रोमांच से भरा हुआ है।

नाम: रसूल गलवान नाम था। एक सूफ़ी संत के कहने पर अपने नाम के पहले ग़ुलाम शब्द जोड़ लिया। गलवान वंश का नाम है जिस का अर्थ 'अश्वपाल' होता है। चूंकि उनके पूर्वज का पेशा घोड़े एवं टट्टुओं की देख-रेख करने का था इस कारण इस समुदाय का यह नाम गलवान पड़ गया।

वाल्टर लॉरेंस ने अपनी किताब 'द वैली ऑफ कश्मीर' के पेज न० 311-312 पर गलवान को एक आदिवासी समुदाय बताया है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर वारिस-उल-अनवर कश्मीर आधारित न्यूज़ पोर्टल पर लिखते हैं कि उन के पूर्वजों का सम्बन्ध एक प्रसिद्ध आदिवासी समुदाय गलवान से था।

परिवारिक पृष्टभूमि:

उनके परदादा कारा गलवान के नाम से विख्यात थे। वो अमीरों को लूटते और ग़रीबों में बाँट देते थे। ग़रीब लोगों में उनकी छवि अभिभावक की थी, वहीं धनी और सम्पन्न लोगों में उन की दहशत व्याप्त थी। उन के दादा महमूद गलवान कश्मीर से बाल्टिस्तान और फिर लेह में आकर आबाद हो गये।

व्यक्तित्व:

आप का जन्म लद्दाख की राजधानी लेह में सन 1878 ई० के आसपास हुआ था। आप बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। बचपन से ही आप कुशाग्र-बुद्धि के थे, दीवारों पर बेहतरीन पेंटिंग बनाया करते थे जिसे देखकर लोग उनकी माँ से कहा करते थे कि तुम्हारा बेटा एक दिन बहुत आगे जाएगा। बचपन के अपने हमउम्र बच्चों के खेल-कूद से दूर रहते थे बचपन से ही रचनात्मक प्रवृत्ति के थे। आप को बचपन से ही लिखने-पढ़ने का बहुत शौक़ था। लेकिन लेह में कोई स्कूल नहीं था, वहाँ के धनी लोग अपने बच्चों के लिए शिक्षक रखते थे। आप अपनी माँ से हमेशा पढ़ने की ज़िद्द किया करते थे। एक बार उन की माँ ने उन से कहाँ, हम निर्धन लोग हैं, तुम्हारे शिक्षक को देने के लिए मेरे पास पैसे नही हैं। पढ़ना-लिखना धनी लोगों का काम है हमारा नहीं, दूसरी बात हमारे बाप दादा पढ़े-लिखे नहीं थे। वह मेहनत मशक़्क़त करने वाले लोग थे और तुम्हें भी वही करना चाहिए, यह तुम्हारे लिए अच्छा होगा। उन्होंने अपनी माँ से कहा, जी, उन लोगों ने अपनी आजीविका के लिए बहुत परिश्रम किया लेकिन मुझे पढ़ना पसन्द है। शायद मेरी क़िस्मत अच्छी हो और मैं अच्छी चीज़ सीखूं जो भविष्य के लिए अच्छा हो। मैं ज़रूर कुछ पढ़ना चाहता हूँ, अगर आप अच्छा समझें तो मुझे शिक्षक के पास जाने दें। मैंने सुना है कि पढ़ना सब से अच्छा है, यह थोड़ा मंहगा ज़रूर है लेकिन बाद में पैसे कमा सकते हैं। माँ ने कहा, नहीं, तुम दर्ज़ी की दुकान पर जाओ वही तुम्हारे भविष्य के लिए अच्छा होगा और इस में कोई ख़र्च भी नहीं है। (पेज न०-11, सर्वेन्ट ऑफ साहिब्स)

उन की माँ ने उन्हें दर्ज़ी के पास भेज दिया। वहाँ उन का बिल्कुल भी मन नहीं लगता था, वह दुःखी रहा करते थे और हमेशा सोचा करते थे कि अगर मैं पैसे वाला होता तो पढ़ाई कर लेता। दुकान वाला उनको बहुत मरता-पिटता था एक महीने में ही तंग आकर वो वहाँ से भाग गए। जब पहली बार बहुत ही कम-उम्र में वो डॉ० ट्रैल के साथ खोज-यात्रा पर जा रहे थे तब उन की माँ ने उन के कुर्ते में 3 रुपए रख कर सिलाई कर दिया और कहा कि जब साहब (विदेशी खोज-यात्री) के दिये पैसे ख़त्म हो जाएं और ज़रूरत पड़े तब इसे ख़र्च करना, लेकिन अपने साहब को यह पहले बाता देना कि तुम्हारे पास कितने रुपये हैं और कहाँ रखें हैं वर्ना जब साहब को कोई लूटेगा और वह तुम्हारे पास पैसे देखेगा तो समझेगा कि तुम चोर हो। सफ़र पर रवाना होने से पहले वह अपनी माँ से लिपट कर रोये, उन को सलाम किया और उन के पैर छुए, फिर सभी पास-पड़ोस और गाँव के लोगों को सलाम किया फिर बहन के घर जाकर सलाम कर के विदा हुए। (पेज न०-25, सर्वेन्ट ऑफ साहिब्स)

कुछ समय बाद एक मिशनरी पादरी ने लेह में स्कूल खोला। गलवान के पढ़ने का शौक़ फिर हिचकोले मारने लगा लेकिन वह अपनी माँ को जानते थे इस लिए अपनी बहन से सिफ़ारिश करवा कर स्कूल में दाख़िला ले लिया, वहाँ आप बड़ी तेज़ी से अन्य लड़कों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ने लगे जिस कारण पादरी बहुत खुश हुआ। उस ने गलवान की भूरी-भूरी प्रसंशा की जिस से गलवान का विश्वास और प्रगाढ़ हुआ। पढ़ाई और साहब लोगों के साथ खोज-यात्रा का सिलसिला चलता रहा। यात्रा के दौरान, जो काफ़ी लंबे समय तक चलती थी, गलवान अपनी पढ़ी हुई चीज़ों को बार-बार अपने मन-मस्तिष्क में दोहराते रहते थे ताकि पढ़ी हुई चीज़े भूल न जाएँ। आप लद्दाख़ी, तुर्की ,उर्दू, कश्मीरी, तिब्बती और अंग्रेज़ी भाषाओं के जानकार थे।

अमेरिकी यात्री रॉबर्ट बर्रेट अपनी पत्नी कैथरीन को लिखे पत्र में गलवान के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए लिखते हैं, रसूल का शिष्टाचार उत्तम है, बहुत सभ्य सज्जन व्यक्ति भी उस की बराबरी नहीं कर सकता है। वह बहुत ही अच्छे आदमी हैं और अपने लोगों के अभिभावक हैं। वह सांवली रंगत,अत्यधिक मोहक मुस्कान वाले, अपनी सभी क्रियाकलापों में योग्य तथा बहुत ही ख़ूबसूरत व्यक्ति हैं। उन की आवाज़ अब तक के मेरे द्वारा सुने गए सबसे मधुरतम मनुष्य की आवाज़ है। वह औरत ही नहीं, जो पहली नज़र में उस को प्यार न कर बैठे लेकिन उनकी नैतिकता का स्तर बहुत ऊँचा है। औरतें उन से ऐसे डरती हैं जैसे कि वह कोई सन्त हों।

बक़ौल लेफ्टिनेंट कर्नल सर फ्रांसिस यंगहसबैंड, आप की ईश्वर में अटूट आस्था थी। उन की यह आस्था हर मुसीबत, आज़माइश और निराशा में उन का सहारा थी। निःसंदेह श्रद्धा की उन की इस आदत ने उन्हें एक सज्जन व्यक्ति बनाया। वह अत्यंत निर्धनता से निकले, गाँव के एक बच्चे के तौर पर अपनी आजीविका की शुरुवात करते हैं लेकिन प्रत्येक परिस्तिथियों में भी उन का व्यवहार एक सभ्य पुरुष की तरह था। आप जन्मजात अच्छे कथावाचक, स्पष्ट रूप से लोकप्रिय गायक और एक बेहतरीन बैंजो वादक थे। अपनी जीवनी के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही 47 वर्ष की आयु में सन 1925 ई० में आप इस दुनिया से चल बसे।

चीनी सैनिकों से दो-दो हाथ:

समांदा सदियों से इसी भू-भाग में वास करते रहें हैं इसी कारण उन को इस भू-भाग से नौसर्गिक लगाव रहा है और आख़िर क्यों ना हो इंसान अपने वतन से अपनी माँ की तरह प्यार करता है। यही एक बड़ी वजह रही है कि पसमांदा मुसलमान सदैव भारत के लिए अपनी जान को न्योछावर करने में अगली पंक्ति में रहा है, उस ने यह कभी नहीं देखा कि देश की सत्ता किन के हाथ में हैं! उस की वरीयता हमेशा से उस का घर यानी उस का देश रहा है जिस के रक्षार्थ वो अपने तमामतर बे-सर-ओ-सामानी के बाद भी बलिदान देता रहा है। और क्यों न हो? वह अशराफ़ मुसलमानों की तरह बाहर से आये हुए आक्रांता तो है नहीं जो भारत देश को विजित प्रदेश मानते हैं।

एक बार जब वह शाम को लौट कर कैम्प में आये तो पता चला कि कुछ चीनी सैनिकों ने मेजर साहब और हेड-मैन के साथ मारपीट की है। रसूल गलवान को बहुत ग़ुस्सा आया, आप अपने साथी कलाम और रमज़ान को लेकर चीनी सैनिकों की जम कर धुलाई कर दी। यहाँ तक कि वह आकर मेजर साहब से माफी माँगने लगे। दूसरे दिन अचानक कलाम ने आकर बताया कि बाज़ार में चीनी हम लोगों को मार रहे हैं। रसूल गलवान फ़ौरन वहाँ पहुँचे, देखा कि पूरा बाज़ार चीनी सैनिकों से भरा हुआ है और वह लोगों को मार रहे थे। आप फ़ौरन लड़ाई में कूद गए, चीनी सैनिकों ने उन का डण्डा तोड़ दिया और बुरी तरह प्रहार कर ज़ख्मी कर दिया। वह ज़मीन पर गिर गए फिर भी चीनी सैनिक उन को मारते रहें और मरा समझ, छोड़कर भाग गए। कुछ देर बाद मेजर साहब हेडमैन के साथ आये तो उन्होंने अधमरी हालात में पड़े ग़ुलाम रसूल से कहा, रसूल तुम्हें दुःखी होने की ज़रूरत नहीं, यहाँ तुम अकेले गिरे हो और वहाँ सात चीनी सैनिक और उन के एक सैन्य अधिकारी भी गिरे पड़े हैं। इस बात ने उन के चेहरे पर विजयी मुस्कान बिखेर दी। उन के साथी रमज़ान भी घायल थे। (पेज न०- 76,77,78, सर्वेन्ट ऑफ साहिब्स)

ग़ुलाम रसूल ने बिना इस बात की परवाह किए कि अंग्रेज़ ख़ुद विदेशी हैं और भारत पर क़ब्ज़ा जमाये बैठे हैं, उन्होंने ने यह ज़्यादा ज़रूरी समझा कि चीनी सैनिकों का मनोबल तोड़ा जाय ताकि वो कभी हमारी सीमाओं की तरफ़ आँख उठा कर न देख सकें और इसके लिए ख़ुद की और अपने साथियों की जान तक को ख़तरे में डाल दिया। आज एक बार फिर रसूल गलवान मरणोपरांत भारत की सीमा के रक्षार्थ एक महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। एक भारतीय द्वारा घाटी का खोजा जाना और उन के नाम पर उस का नामकरण भारत के दावे को और अधिक मज़बूती प्रदान कर रहा है।

सन्दर्भ:

Servant of Sahibs:A Book To Be Read Aloud, Ghulam Rassul Galwan, W Heffer  Sons Ltd, Cambridge,1924

The Valley of Kashmir, Walter R. Lawrence, I.C.S., CLE.,Oxford University Press,1895

द फ़ेडरल (https://thefederal.com/news/backstory-of-ladakhs-galawan-valley-and-the-legend-of-rassul-galwan/)

कश्मीर ऑब्ज़र्वर (https://m.kashmirobserver.net/2020/05/31/backstory-of-ladakhs-galwan-valley-and-the-legend-of-rassul-galwan/amp/)

द इकोनॉमिक्स

(https://m.economictimes.com/news/politics-and-nation/meet-the-man-after-whom-galvan-river-is-named/articleshow/76363707.cms)

द लल्लनटॉप यूट्यूब

आभार:

मैं ग़ुलाम रसूल गलवान साहब का आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने अपने जीवन वृतांत को एक किताब के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया और एक पसमांदा विभूति को इतिहास में अमर रखने में महती योगदान दिया। किताब का शीर्षक ही पसमांदा एंगल को स्पष्ट कर रहा है। 'साहबो का नौकर' उन्होंने अपनी पसमांदगी (पसमांदा आदिवासी समाज से होना, बाप दादा का पेशा जिसे उस समय और आज भी बुरा समझा जाता है) को छुपाया नहीं बल्कि बाबा कबीर की तरह ज़ाहिर किया। साथ ही मैं इंजीनियर शमशाद अहमद साहब का भी आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे गलवान साहब की फ़ोटो व्हाट्सअप पर भेजकर उनसे परिचित करवाया जिससे मुझे लिखने की प्रेरणा मिली।

फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी

नोट: यह लेखक के अपने निजी विचार हैं। संपादक का लेख से सहमत होना आवश्यक नहीं।



**

**

Subscribe to Pasmanda Democracy

Get the latest posts delivered right to your inbox.

Share: