आज बहुत दुर्भाग्य की बात है कि हम सब अपने ही देश में अपने ही लोगों के द्वारा देश के संविधान को जलाये जाने और उस पर फैले सन्नाटे और ख़ामोशी से गुज़र रहें हैं। याद रखें, हम सब तभी हैं जब यह राष्ट्र है और यह राष्ट्र तभी है जब संविधान है। किसी भी देश और उस के नागरिकों के जीवित होने का सबूत उस देश का संविधान होता है। संविधान पर किसी भी तरह का ख़तरा या संकट हमारे अस्तित्व पर ख़तरा और संकट है। यह एक बहुत ही गम्भीर मुद्दा है जहाँ हमारी आज़ादी, हमारी सम्प्रभुता और हमारी व्यवस्था संकट में है। लेकिन बहुत ही हैरत, अफ़सोस और (हम सब की) असंवेदनशीलता की बात है कि इस संकट की घड़ी में भी पूरे देश में एक अजीब क़िस्म की ख़ामोशी छायी हुई है जो किसी भी तरह से राष्ट्रहित में नहीं है। मैं धन्यवाद देना चाहूंगा महादलित परिसंघ के पदाधिकारियों को और ख़ास तौर से राष्ट्रीय महासचिव चंदन लाल जी का जिन्होंने ने इस गम्भीर विषय पर एक सक्रिय भूमिका निभाई और एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया। जिस में देश के लगभग सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञों को इकट्ठा किया और वह लोग भी धन्यवाद के पात्र है जो बहुत ही शार्ट नोटिस पर परिचर्चा के लिए हाज़िर हुए हैं।
Author: Faizi
[महादलित परिसंघ द्वारा आयोजित 'जलता संविधान और पसरी ख़ामोशियां' सेमिनार के लिए प्रेषित जनाब डॉक्टर फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी साहब का भाषण]
सभा मे मौजूद सम्मानीय नागरिक जन!
आज बहुत दुर्भाग्य की बात है कि हम सब अपने ही देश में अपने ही लोगों के द्वारा देश के संविधान को जलाये जाने और उस पर फैले सन्नाटे और ख़ामोशी से गुज़र रहें हैं। याद रखें, हम सब तभी हैं जब यह राष्ट्र है और यह राष्ट्र तभी है जब संविधान है। किसी भी देश और उस के नागरिकों के जीवित होने का सबूत उस देश का संविधान होता है। संविधान पर किसी भी तरह का ख़तरा या संकट हमारे अस्तित्व पर ख़तरा और संकट है। यह एक बहुत ही गम्भीर मुद्दा है जहाँ हमारी आज़ादी, हमारी सम्प्रभुता और हमारी व्यवस्था संकट में है। लेकिन बहुत ही हैरत, अफ़सोस और (हम सब की) असंवेदनशीलता की बात है कि इस संकट की घड़ी में भी पूरे देश में एक अजीब क़िस्म की ख़ामोशी छायी हुई है जो किसी भी तरह से राष्ट्रहित में नहीं है। मैं धन्यवाद देना चाहूंगा महादलित परिसंघ के पदाधिकारियों को और ख़ास तौर से राष्ट्रीय महासचिव चंदन लाल जी का जिन्होंने ने इस गम्भीर विषय पर एक सक्रिय भूमिका निभाई और एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया। जिस में देश के लगभग सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञों को इकट्ठा किया और वह लोग भी धन्यवाद के पात्र है जो बहुत ही शार्ट नोटिस पर परिचर्चा के लिए हाज़िर हुए हैं।
मैं एक-दो बातों पर आप लोगो का ध्यान दिलाना चाहूंगा,
पहला यह कि आख़िर हम सब से कैसे और कहां चूक हुई कि कुछ लोग संविधान द्वारा ही दिये गए 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का प्रयोग करके संविधान को जलाने का दुःसाहस किया। आख़िर कैसे इन लोगों का मस्तिष्क इतना विकृत हो गया कि ख़ुद अपने ही शरीर को भस्म करने पर आतुर हैं। इन के अस्वस्थ मस्तिष्क और दूषित मानसिकता के उपचार के लिए हमें गम्भीरता से सोचना पड़ेगा।
भारतीय संविधान की महत्ता का यह आलम है कि दुनिया में तमाम देश इस की क़समें खातें हैं और अपने संविधान की भूमिका में यह बात लिखते हैं कि हमारे संविधान का मूल भारतीय संविधान है। आधुनिक युग में अपना संविधान संकलित करने वाले देश भारतीय संविधान को ध्यान में रखते हुए अपने संविधान को तरतीब देते है। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम ने अपने संविधान के द्वारा ना केवल अपने देशवासियों के जीवन को सजाया-संवारा है बल्कि पूरी दुनिया को एक ऐसी रोशनी दी है जिस के प्रकाश में वह मानवता के नित नए आयाम गढ़ रहे हैं, लेकिन वहीं इस संविधान की वजह से फलने-फूलने वाले प्यारे देश में उसी के नागरिकों द्वारा उस का दहन किया गया और कहीं से कोई आवाज़ तक नहीं। देश के बाहर जब यह ख़बर गयी होगी तो निश्चित ही राष्ट्र की छवि धूमिल हुई होगी।
हम सब को संविधान की महत्ता और इस की अवश्यकया के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ना पड़ेगा ताकि जो मस्तिष्क दूषित हो गए हैं उन की मानसिक विकृति का उपचार हो सके और जो लोग इस विकृति की ओर बढ़ रहे हैं वह लोग इस भयावह और जानलेवा बीमारी से ख़ुद की रक्षा कर सकें।
दूसरी बात यह कहना चाहूंगा कि,
आख़िर क्या कारण है कि देश के अस्तित्व पर ख़तरा मंडरा रहा है और सब के सब ख़ामोश बैठे हैं। क्या हमारा व्यक्तिगत हित, जातिगत हित, आर्थिक हित, सामाजिक हित एवं शैक्षिक हित राष्ट्रहित से बढ़ कर हैं? उस के ऊपर है? कदापि नहीं! यह हम सब की भारी भूल है। मैं ने शुरू में ही कहा है कि हमारा अस्तित्व तभी है जब राष्ट्र का अस्तित्व है और राष्ट्र का अस्तित्व तभी है जब संविधान का अस्तित्व है।
मेरी समझ में सब से प्रमुख कारण जो नज़र आ रहा है वो यह कि हम सब अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो गए है कि इस प्यारे दुलारे देश की भी परवाह नही कर रहे हैं और जिस डाली पर बैठे है उसी को काटने की कोशिश कर रहें हैं।
आख़िर में मैं यह कहना चाहूँगा कि देश के स्वरूप को इस देश के भाई बंधुत्व को देश के संविधान को बचाने के लिए इस देश का सब से कमज़ोर तबक़ा (वर्ग) जिसे आप बहुजन-पसमांदा का नाम दें, दलित-महादलित कहें, पिछड़ा कहें या मूलनिवासी-आदिवासी, वही सीना-सिपर हो कर, आगे आकर हर तरह की क़ुर्बानी और बलिदान देते हुए मैदान में मज़बूती से डटा हुआ है। जहां देश के लिए यह सम्मान और गर्व की बात है वहीं यह बहुत ही शर्म की बात है बल्कि मैं समझता हूँ कि इसे राष्ट्रीय शर्म और लज्जा कहना चाहिए कि देश का साधन-संपन्न तबक़ा, अमीर और धनी लोग, अशराफ़ और सवर्ण तबक़ा बजाय आगे आने और विरोध करने के, एक मुर्दनी सी ख़ामोशी ओढ़े हुए है। एक दो अपवाद हो सकते हैं लेकिन सच यही है और यह स्तिथि किसी भी तरह से राष्ट्र हित में नहीं है।
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में,
जो आज साहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे,
किरायेदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है!
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है!
हम सब को मिल कर इस दिशा में आगे बढ़ना होगा। अपने स्वार्थों को परे रख कर राष्ट्र के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए मिल-जुल कर आगे बढ़ना होगा। इसी दिशा में यह सेमिनार आयोजित किया गया है। न सिर्फ़ लखीमपुर बल्कि देश के हर गाँव, हर नगर में एक परिचर्चा होनी चाहिए। हमारी नई पीढ़ी को पता चलना चाहिए कि संविधान हमारे अस्तित्व के लिए वैसे ही एक अनिवार्य घटक है जैसे जीवन के लिए हवा और पानी।
अंत में मैं महादलित परिसंघ और उस के राष्ट्रीय महासचिव चंदन लाल वाल्मीकि जी का धन्यवाद करना चाहूंगा जिन्होंने मुझ जैसे नाचीज़ को यहाँ प्रबुद्ध लोगों के बीच अपनी बात रखने का मौका दिया।
जय संविधान जय भारत
फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी,
[पेशे से चिकित्सक हैं, लेखक एवं अनुवादक है और जाती उन्मूलन एवं वंचित समाज को मुख्यधारा में लाने के सँघर्ष के साथी हैं।]
नोट: यह लेखक के अपने निजी विचार हैं, सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं।
Get the latest posts delivered right to your inbox.